Tuesday, November 20, 2012

जन्म दिन 19 नवम्बर पर याद की गयीं वीरांगना लक्ष्मीबाई

 नवम्बर माह में जन्मे अन्य क्रांतिकारियों को दी गयी सामूहिक श्रद्धांजलि 
दीप प्रज्ज्वलन करते हुए हरविलास गुप्ता, तेलूराम कम्बोज व रवि अरोड़ा 

गाज़ियाबाद । शहीद स्मृति फाउन्डेशन ने आज 19 नवम्बर को झाँसी की रानी वीरांगना महारानी लक्ष्मी बाई का जन्म दिवस मनाया  । देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली महारानी लक्ष्मीबाई के अप्रतिम शौर्य और उनके योगदान की स्मृति में उनका 188 वां जन्म दिन धूमधाम से मनाया । शहीद स्मृति फाउन्डेशन का लक्ष्य है “आम भारतीय जनमानस विशेषकर नयी पीढ़ी को शहीदों और महापुरुषों के योगदान से सतत अवगत कराते रहना”, ताकि युवा पीढ़ी में मूल्यों की पुनर्स्थापना हो और वे हमारे ऐतिहासिक क्रांतिकारियों और महापुरुषों के आदर्शों पर चलकर राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान दे सकें। गाज़ियाबाद के  एडवांस इंस्टिट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट में आयोजित हुए  उक्त कार्यक्रम में महारानी लक्ष्मी बाई के साथ साथ नवम्बर माह में जन्मे अन्य क्रांतिकारियों जैसे बिरसा मुंडा, झलकारी बाई, वासुदेव बलवंत फड़के , बिपिन चन्द्र पाल, पांडुरंग महादेव बापट, खान खोजे, उदयचंद जैन, शांति घोष , केशरी सिंह बारहठ आदि महान क्रांतिकारियों का  देश के प्रति किये गए बलिदान पर प्रकाश डाला डाला गया  और उनको सामूहिक श्रद्धांजलि दी गयी 
        फाउन्डेशन के संयोजक हरविलास गुप्ता के अनुसार आगामी महीनों में भी हर माह ऐसे ही कार्यक्रम आयोजित होते रहेंगे जिनमे सम्बंधित  माह में जन्मे क्रांतिकारियों का सामूहिक रूप से स्मरण करके उनको श्रद्धांजलि देकर जन्मदिन मनाया जायेगा।  फाउन्डेशन का प्रयास रहेगा कि लोगो के दिलो दिमाग से  क्रन्तिकारियों का बलिदान विस्मृत न होने पाए।  
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि  महापौर तेलूराम कम्बोज ने  विचार व्यक्त करते हुए कहा कि आज हमारी बहन बेटियों को रानी लक्ष्मी बाई का अनुकरण करते हुए न केवल राष्ट्र के प्रति अपना संभव योगदान देने को तत्पर रहना होगा बल्कि उन्हें समाज में व्याप्त कुरीतियों और अत्याचारों का डटकर मुकाबला करना होगा। उन्होंने कहा कि  महिलाओं को परिवार, समाज और देश के प्रति अपने उत्तरदायित्व को समझना होगा । महापौर ने कहा कि इस कार्यक्रम के संयोजक तथा शहीद स्मृति फाउन्डेशन के अध्यक्ष श्री हरविलास गुप्ता साधुवाद के पात्र हैं जो इस तरह के कार्यक्रमों को सतत रूप से कर रहे हैं निश्चित रूप से ऐसे कार्यक्रमों से एक ओर तो लोगो में राष्ट्रीयता की भावना जागृत होती  है तथा दूसरी ओर समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त होता है। साथ ही लोगो का विशेषकर युवा पीढ़ी का आह्वान करते हुए कहा कि श्री हरविलास  गुप्ता द्वारा राष्ट्रीय पुनर्जागरण हेतु चलायी जा रही इस मुहीम में पूरे मनोयोग से सहभागिता निभाएं। एडवांस इंस्टिट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट की प्रबंध निदेशिका श्री मती बाणी डे ने अतिथियों का धन्यवाद किया और  छात्र छात्राओं  को संबोधित करते हुए कहा कि राष्ट्र निर्माण में उन्हें महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी इसके लिए उन्हें रानी लक्ष्मीबाई, बलवंत फडके, झलकारी बाई और शांति घोष जैसे आदर्शों पर चलने का संकल्प लेना होगा। 

Wednesday, November 14, 2012

रानी लक्ष्मीबाई : वीरता और शौर्य की बेमिसाल कहानी





देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली रानी लक्ष्मीबाई के अप्रतिम शौर्य से चकित अंग्रेजों ने भी उनकी प्रशंसा की थी और वह अपनी वीरता के किस्सों को लेकर किंवदंती बन चुकी हैं.

RANI LAKSHMI BAI रानी लक्ष्मीबाई का जीवन
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1828 को काशी के असीघाट, वाराणसी में हुआ था. इनके पिता का नाम मोरोपंत तांबे और माता का नाम ‘भागीरथी बाई’ था. इनका बचपन का नाम ‘मणिकर्णिका’ रखा गया परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को ‘मनु’ पुकारा जाता था.

मनु जब मात्र चार साल की थीं, तब उनकी मां का निधन हो गया. पत्नी के निधन के बाद मोरोपंत मनु को लेकर झांसी चले गए. रानी लक्ष्मी बाई का बचपन उनके नाना के घर में बीता, जहां वह “छबीली” कहकर पुकारी जाती थी. जब उनकी उम्र 12 साल की थी, तभी उनकी शादी झांसी के राजा गंगाधर राव के साथ कर दी गई.

रानी लक्ष्मीबाई की शादी
उनकी शादी के बाद झांसी की आर्थिक स्थिति में अप्रत्याशित सुधार हुआ. इसके बाद मनु का नाम लक्ष्मीबाई रखा गया.

अश्वारोहण और शस्त्र-संधान में निपुण महारानी लक्ष्मीबाई ने झांसी किले के अंदर ही महिला-सेना खड़ी कर ली थी, जिसका संचालन वह स्वयं मर्दानी पोशाक पहनकर करती थीं. उनके पति राजा गंगाधर राव यह सब देखकर प्रसन्न रहते. कुछ समय बाद लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया, पर कुछ ही महीने बाद बालक की मृत्यु हो गई.

मुसीबतों का पहाड़
पुत्र वियोग के आघात से दु:खी राजा ने 21 नवंबर, 1853 को प्राण त्याग दिए. झांसी शोक में डूब गई. अंग्रेजों ने अपनी कुटिल नीति के चलते झांसी पर चढ़ाई कर दी. रानी ने तोपों से युद्ध करने की रणनीति बनाते हुए कड़कबिजली, घनगर्जन, भवानीशंकर आदि तोपों को किले पर अपने विश्वासपात्र तोपची के नेतृत्व में लगा दिया.

raniरानी लक्ष्मीबाई का चण्डी स्वरूप
14 मार्च, 1857 से आठ दिन तक तोपें किले से आग उगलती रहीं. अंग्रेज सेनापति ह्यूरोज लक्ष्मीबाई की किलेबंदी देखकर दंग रह गया. रानी रणचंडी का साक्षात रूप रखे पीठ पर दत्तक पुत्र दामोदर राव को बांधे भयंकर युद्ध करती रहीं. झांसी की मुट्ठी भर सेना ने रानी को सलाह दी कि वह कालपी की ओर चली जाएं. झलकारी बाई और मुंदर सखियों ने भी रणभूमि में अपना खूब कौशल दिखाया. अपने विश्वसनीय चार-पांच घुड़सवारों को लेकर रानी कालपी की ओर बढ़ीं. अंग्रेज सैनिक रानी का पीछा करते रहे. कैप्टन वाकर ने उनका पीछा किया और उन्हें घायल कर दिया.

अंतिम जंग का दृश्य
22 मई, 1857 को क्रांतिकारियों को कालपी छोड़कर ग्वालियर जाना पड़ा. 17 जून को फिर युद्ध हुआ. रानी के भयंकर प्रहारों से अंग्रेजों को पीछे हटना पड़ा. महारानी की विजय हुई, लेकिन 18 जून को ह्यूरोज स्वयं युद्धभूमि में आ डटा. लक्ष्मीबाई ने दामोदर राव को रामचंद्र देशमुख को सौंप दिया. सोनरेखा नाले को रानी का घोड़ा पार नहीं कर सका. वहीं एक सैनिक ने पीछे से रानी पर तलवार से ऐसा जोरदार प्रहार किया कि उनके सिर का दाहिना भाग कट गया और आंख बाहर निकल आई. घायल होते हुए भी उन्होंने उस अंग्रेज सैनिक का काम तमाम कर दिया और फिर अपने प्राण त्याग दिए. 18 जून, 1857 को बाबा गंगादास की कुटिया में जहां इस वीर महारानी ने प्राणांत किया वहीं चिता बनाकर उनका अंतिम संस्कार किया गया.

लक्ष्मीबाई ने कम उम्र में ही साबित कर दिया कि वह न सिर्फ बेहतरीन सेनापति हैं बल्कि कुशल प्रशासक भी हैं. वह महिलाओं को अधिकार संपन्न बनाने की भी पक्षधर थीं. उन्होंने अपनी सेना में महिलाओं की भर्ती की थी.

आज कुछ लोग जो खुद को महिला सशक्तिकरण का अगुआ बताते हैं वह भी स्त्रियों को सेना आदि में भेजने के खिलाफ हैं पर इन सब के लिए रानी लक्ष्मीबाई एक उदाहरण हैं कि अगर महिलाएं चाहें तो कोई भी मुकाम हासिल कर सकती हैं.

Monday, November 12, 2012

अहिंसा से नहीं, नेता जी के संघर्ष से मिली आजादी


अहिंसा को आधार मान कर आज़ादी का ढोल पीटने वाले शायद ये भूल जाते हैं कि 1942 का भारत छोडो आन्दोलन असफल होने के बाद देश में एक ठहराव, एक निर्वात ( वैक्क्यूम ) सा आ गया था। क्रांतिकारी  आन्दोलन भी देश के अंदर कुछ हल्का पड़  गया था लेकिन ख़त्म नहीं हुआ था। नेता जी का सशस्त्र युद्ध अंग्रेजों की नाक में दम किये हुए था। अंग्रेज सेना में भर्ती  भारतीय नौजवान नेता जी के साथ होते जा रहे थे। गाँधी जी का अहिंसा आन्दोलन क्षीण हो चुका  था। लोगों की नज़र अब नेता जी पर टिकी हुई थी। 
हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए परमाणु बम ने जापान और ज़र्मनी के हौसले पस्त कर दिए थे। परिणामस्वरुप आज़ाद हिन्द फ़ौज को भी धक्का लगा। 1945 तक यह युद्ध पूरी ताकत से आगे बढ़ता गया। किन्तु परमाणु हमले के प्रहार ने जर्मनी  और जापान को आगे बढ़ने से रोक दिया और परिणाम स्वरुप नेता जी सुभाष का आगे बढ़ना भी मुश्किल हो गया। देश के अन्दर अहिंसा आन्दोलन दम तोड़ चुका  था लेकिन क्रन्तिकारी हौसले कायम थे जिसके परिणामस्वरूप नौसेना और थलसेना में भी विद्रोह देखने को मिला।
युद्ध समाप्त होने के बाद भारतीय नौसेना के बेड़े  भारत लौट  रहे थे, उन्ही दिनों भारतीय नौसेना का एक जहाज अराकान में पहुंचा। जहाज के कुछ भारतीय अफसर और कर्मचारी नगर भ्रमण को निकले। उनसे कुछ स्थानीय भारतीय लोग  बाज़ार में मिले और उन्हें धिक्कारा और कहा " आप लोगों को धिक्कार है कि आप भारत की आज़ादी के लिए न लड़कर उसकी गुलामी को स्थाई करने के लिए लड़े , यही नहीं आप लोगों ने दूसरे  स्वतंत्र देशों को भी अंग्रेजों का  गुलाम बनाने मे मदद की। आप सबसे  तो नेता जी की आज़ाद हिन्द फ़ौज लाख गुना अच्छी है जो भूखे प्यासे रहकर अपने देश को आज़ाद करने की लड़ाई लड़ रही है । आप लोगों को विजय की ख़ुशी मनाने के स्थान पर चुल्लू भर पानी में डूबकर मर जाना चाहिए". यह अग्रेंजो की जीत और भारत की हार है।
यह धिक्कार भरी जन प्रतिक्रिया सुनकर उन्होंने संकल्प कर लिया कि या तो देश को आज़ाद कराएँगे या प्राण दे देंगे। देखते ही  देखते सभी जवानों ने "जय हिन्द" के नारों से क्षेत्र को गुंजायमान कर दिया। विशाखापट्नम, कोचीन , मद्रास सभी  बंदरगाहों पर आन्दोलन  फ़ैल गया। विद्रोह में सम्मिलित होने वाले जहाजों में प्रमुख जहाज थे, "हिंदुस्तान", "कावेरी", "सतलज", "नर्मदा", "असम ", "यमुना" , "कोच्चि" आदि।
यानि सम्पूर्ण भारत के जहाजी बड़े विद्रोह में शामिल हो गए थे और उन पर आज़ाद  हिन्द फ़ौज का झंडा और नेता जी का चित्र लगा दिया  गया था। सभी जहाजो से जय हिन्द और नेता जी की जय के नारे गूंजने लगे थे।  इस विद्रोह से निपटने के लिए अग्रेजों ने थल सेना को नौसेना के जहाजों पर गोलियां चलाने  का आदेश दिया। परन्तु थल सेना ने विद्रोह कर दिया और नौसेना पर गोलियां चलने से मना  कर दिया। इसके विपरीत विद्रोही सैनिको और  ब्रिटिश सैनिको के साथ जमकर संघर्ष हुआ।इसमें सैकड़ों अंग्रेजी सैनिक मारे गए। इससे  ब्रिटिश हुकूमत घबरा गयी और संधि के लिए बल्लभ भाई पटेल के माध्यम से वार्ता शुरू की गयी। विद्रोह शांत हो गया , परन्तु अंग्रेज अपनी आदत के अनुसार संधि वार्ता की शर्तों पर टिका नहीं और विद्रोहियों को उसका दुष्परिणाम  भुगतना पड़ा।  किन्तु इस बार का विद्रोह अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें हिलाने में कामयाब रहा। तत्कालीन ब्रिटिश प्रधान मंत्री लार्ड एटली ने ब्रिटिश संसद में बयान देते हुए कहा था " ब्रिटेन भारत को सत्ता का हस्तांतरण इसलिए कर रहा है क्योंकि अब भारतीय सेना ब्रिटेन के प्रति बफादार नहीं रही, और ब्रिटेन इतनी बड़ी अपनी स्वयं की सेना भारत में तैनात नहीं कर सकता जो भारत को गुलाम बनाये रख सके". 
ब्रिटिश साम्राज्य ने भारत  को सत्ता हस्तांतरण करते समय सुभाष बोस के महत्व को बड़ी ईमानदारी से स्वीकार करते हुए कहा था कि "भारत सरकार  को शीघ्र ही यह विदित हो गया कि  अंग्रेजी राज्य की रीढ़ की हड्डी भारतीय सेना नेता जी के साथ  है और उस पर अधिक समय तक निर्भर नहीं रहा जा सकता है"। इससे स्पष्ट है कि  आज़ादी अहिंसा से नहीं नेता जी के संघर्ष  से मिली है।