Monday, November 12, 2012

अहिंसा से नहीं, नेता जी के संघर्ष से मिली आजादी


अहिंसा को आधार मान कर आज़ादी का ढोल पीटने वाले शायद ये भूल जाते हैं कि 1942 का भारत छोडो आन्दोलन असफल होने के बाद देश में एक ठहराव, एक निर्वात ( वैक्क्यूम ) सा आ गया था। क्रांतिकारी  आन्दोलन भी देश के अंदर कुछ हल्का पड़  गया था लेकिन ख़त्म नहीं हुआ था। नेता जी का सशस्त्र युद्ध अंग्रेजों की नाक में दम किये हुए था। अंग्रेज सेना में भर्ती  भारतीय नौजवान नेता जी के साथ होते जा रहे थे। गाँधी जी का अहिंसा आन्दोलन क्षीण हो चुका  था। लोगों की नज़र अब नेता जी पर टिकी हुई थी। 
हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए परमाणु बम ने जापान और ज़र्मनी के हौसले पस्त कर दिए थे। परिणामस्वरुप आज़ाद हिन्द फ़ौज को भी धक्का लगा। 1945 तक यह युद्ध पूरी ताकत से आगे बढ़ता गया। किन्तु परमाणु हमले के प्रहार ने जर्मनी  और जापान को आगे बढ़ने से रोक दिया और परिणाम स्वरुप नेता जी सुभाष का आगे बढ़ना भी मुश्किल हो गया। देश के अन्दर अहिंसा आन्दोलन दम तोड़ चुका  था लेकिन क्रन्तिकारी हौसले कायम थे जिसके परिणामस्वरूप नौसेना और थलसेना में भी विद्रोह देखने को मिला।
युद्ध समाप्त होने के बाद भारतीय नौसेना के बेड़े  भारत लौट  रहे थे, उन्ही दिनों भारतीय नौसेना का एक जहाज अराकान में पहुंचा। जहाज के कुछ भारतीय अफसर और कर्मचारी नगर भ्रमण को निकले। उनसे कुछ स्थानीय भारतीय लोग  बाज़ार में मिले और उन्हें धिक्कारा और कहा " आप लोगों को धिक्कार है कि आप भारत की आज़ादी के लिए न लड़कर उसकी गुलामी को स्थाई करने के लिए लड़े , यही नहीं आप लोगों ने दूसरे  स्वतंत्र देशों को भी अंग्रेजों का  गुलाम बनाने मे मदद की। आप सबसे  तो नेता जी की आज़ाद हिन्द फ़ौज लाख गुना अच्छी है जो भूखे प्यासे रहकर अपने देश को आज़ाद करने की लड़ाई लड़ रही है । आप लोगों को विजय की ख़ुशी मनाने के स्थान पर चुल्लू भर पानी में डूबकर मर जाना चाहिए". यह अग्रेंजो की जीत और भारत की हार है।
यह धिक्कार भरी जन प्रतिक्रिया सुनकर उन्होंने संकल्प कर लिया कि या तो देश को आज़ाद कराएँगे या प्राण दे देंगे। देखते ही  देखते सभी जवानों ने "जय हिन्द" के नारों से क्षेत्र को गुंजायमान कर दिया। विशाखापट्नम, कोचीन , मद्रास सभी  बंदरगाहों पर आन्दोलन  फ़ैल गया। विद्रोह में सम्मिलित होने वाले जहाजों में प्रमुख जहाज थे, "हिंदुस्तान", "कावेरी", "सतलज", "नर्मदा", "असम ", "यमुना" , "कोच्चि" आदि।
यानि सम्पूर्ण भारत के जहाजी बड़े विद्रोह में शामिल हो गए थे और उन पर आज़ाद  हिन्द फ़ौज का झंडा और नेता जी का चित्र लगा दिया  गया था। सभी जहाजो से जय हिन्द और नेता जी की जय के नारे गूंजने लगे थे।  इस विद्रोह से निपटने के लिए अग्रेजों ने थल सेना को नौसेना के जहाजों पर गोलियां चलाने  का आदेश दिया। परन्तु थल सेना ने विद्रोह कर दिया और नौसेना पर गोलियां चलने से मना  कर दिया। इसके विपरीत विद्रोही सैनिको और  ब्रिटिश सैनिको के साथ जमकर संघर्ष हुआ।इसमें सैकड़ों अंग्रेजी सैनिक मारे गए। इससे  ब्रिटिश हुकूमत घबरा गयी और संधि के लिए बल्लभ भाई पटेल के माध्यम से वार्ता शुरू की गयी। विद्रोह शांत हो गया , परन्तु अंग्रेज अपनी आदत के अनुसार संधि वार्ता की शर्तों पर टिका नहीं और विद्रोहियों को उसका दुष्परिणाम  भुगतना पड़ा।  किन्तु इस बार का विद्रोह अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें हिलाने में कामयाब रहा। तत्कालीन ब्रिटिश प्रधान मंत्री लार्ड एटली ने ब्रिटिश संसद में बयान देते हुए कहा था " ब्रिटेन भारत को सत्ता का हस्तांतरण इसलिए कर रहा है क्योंकि अब भारतीय सेना ब्रिटेन के प्रति बफादार नहीं रही, और ब्रिटेन इतनी बड़ी अपनी स्वयं की सेना भारत में तैनात नहीं कर सकता जो भारत को गुलाम बनाये रख सके". 
ब्रिटिश साम्राज्य ने भारत  को सत्ता हस्तांतरण करते समय सुभाष बोस के महत्व को बड़ी ईमानदारी से स्वीकार करते हुए कहा था कि "भारत सरकार  को शीघ्र ही यह विदित हो गया कि  अंग्रेजी राज्य की रीढ़ की हड्डी भारतीय सेना नेता जी के साथ  है और उस पर अधिक समय तक निर्भर नहीं रहा जा सकता है"। इससे स्पष्ट है कि  आज़ादी अहिंसा से नहीं नेता जी के संघर्ष  से मिली है। 

No comments: