Thursday, December 20, 2012

शहीद ऊधम सिंह के जन्म दिन 26 दिसंबर पर आयोजित होगा " सामूहिक श्रद्धांजलि " कार्यक्रम




      दिसंबर  माह में जन्मे/ शहीद हुए   क्रांतिकारियों को दी जाएगी  सामूहिक श्रद्धांजलि 

गाज़ियाबाद । हर माह की तरह इस माह भी शहीद स्मृति फाउन्डेशन 26 दिसंबर 2012 को शहीद ऊधम सिंह के जन्मदिवस के अवसर पर  शहीद ऊधम सिंह के साथ साथ  दिसंबर माह में जन्मे / शहीद हुए अन्य क्रांतिकारियों को याद करने हेतु  सामूहिक श्रद्धांजलि कार्यक्रम मनायेगा  ।    26 दिसंबर 1899 को  पंजाब के संगरूर ज़िले के सुनाम गाँव मे जन्मे ऊधम सिंह जलियावाला कांड के समय केवल 20 वर्ष के थे किन्तु अंग्रेजों के इस क्रूरतम  कृत्य वाली  ह्र्दय विदारक घटना से ऊधम सिंह का मस्तिष्क प्रतिशोध से जल उठा और उन्होंने जलियाँ वाला कांड के लिए जिम्मेदार  माइकल ओ डायर की हत्या करने का संकल्प ले डाला।  दो दशको बाद तक भी इस  प्रतिशोध की आग ऊधम के  दिल में धधकती रही  और आखिर में उन्होंने बड़ी ही चतुराई से  लन्दन जाकर 13 मार्च 1940 को   काक्सटन हाल में  डायर को भरी सभा में ढेर कर दिया और इस तरह अपनी माँ भारती के शत्रु को सरे आम क़त्ल करके  ही उनके कलेजे को ठंडक मिली । खुली चुनौती  देकर और दुश्मन को उसी के घर में  घुसकर मारने वाले ऊधम सिंह ने  बहादुर शाह जफ़र के इस वाक्य को साकार कर दिया कि " तख़्त-ए-लन्दन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान की।" उनके  इस साहस ने हर भारतीय का सिर  गर्व से ऊंचा कर दिया था। 
श्री गुप्ता ने कहा कि शहीद उधम सिंह का 114 वाँ जन्म दिवस मनाने में  शहीद स्मृति फाउन्डेशन स्वयं को गौरवान्वित महशूस कर रहा है क्योंकि  ऊधम सिंह न सिर्फ एक बहादुर क्रन्तिकारी थे बल्कि वे  'सर्व धर्म सम भाव' के प्रतीक थे और इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर राम मोहम्मद आज़ाद सिंह रख लिया था जो भारत के तीन प्रमुख धर्मो का प्रतीक है।
 उन्होंने बताया कि शहीद स्मृति फाउन्डेशन का लक्ष्य है “आम भारतीय जनमानस विशेषकर नयी पीढ़ी को शहीदों और महापुरुषों के योगदान से सतत अवगत कराते रहना”, ताकि युवा पीढ़ी में मूल्यों की पुनर्स्थापना हो और वे हमारे ऐतिहासिक क्रांतिकारियों और महापुरुषों के आदर्शों पर चलकर राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान दे सकें। गाज़ियाबाद के  नेहरु नगर स्थित सरस्वती शिशु मंदिर में आयोजित होने जा रहे  इस सामूहिक श्रद्धांजलि कार्यक्रम में दिसंबर माह जन्मे/ शहीद हुए  अन्य क्रांतिकारियों जैसे खुदीराम बोस, प्रफुल्ल चाकी, राव तुला राम, राजेंद्र लाहिड़ी, बादल गुप्ता, रोशन सिंह, अनंत सिंह, बाघा जतिन, बेनॉय कृष्ण बसु, दिनेश चंद गुप्ता, राम राखा एवं सैकड़ों अन्य  महान क्रांतिकारियों का  देश के प्रति किये गए बलिदान पर प्रकाश डालकर उनको सामूहिक श्रद्धांजलि दी जाएगी  । 
        फाउन्डेशन के अनुसार आगामी महीनों में भी हर माह ऐसे ही कार्यक्रम आयोजित होते रहेंगे जिनमे सम्बंधित  माह में जन्मे क्रांतिकारियों का सामूहिक रूप से स्मरण करके उनको श्रद्धांजलि देकर जन्मदिन/ शहादत दिवस  मनाया जायेगा। 

Tuesday, November 20, 2012

जन्म दिन 19 नवम्बर पर याद की गयीं वीरांगना लक्ष्मीबाई

 नवम्बर माह में जन्मे अन्य क्रांतिकारियों को दी गयी सामूहिक श्रद्धांजलि 
दीप प्रज्ज्वलन करते हुए हरविलास गुप्ता, तेलूराम कम्बोज व रवि अरोड़ा 

गाज़ियाबाद । शहीद स्मृति फाउन्डेशन ने आज 19 नवम्बर को झाँसी की रानी वीरांगना महारानी लक्ष्मी बाई का जन्म दिवस मनाया  । देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली महारानी लक्ष्मीबाई के अप्रतिम शौर्य और उनके योगदान की स्मृति में उनका 188 वां जन्म दिन धूमधाम से मनाया । शहीद स्मृति फाउन्डेशन का लक्ष्य है “आम भारतीय जनमानस विशेषकर नयी पीढ़ी को शहीदों और महापुरुषों के योगदान से सतत अवगत कराते रहना”, ताकि युवा पीढ़ी में मूल्यों की पुनर्स्थापना हो और वे हमारे ऐतिहासिक क्रांतिकारियों और महापुरुषों के आदर्शों पर चलकर राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान दे सकें। गाज़ियाबाद के  एडवांस इंस्टिट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट में आयोजित हुए  उक्त कार्यक्रम में महारानी लक्ष्मी बाई के साथ साथ नवम्बर माह में जन्मे अन्य क्रांतिकारियों जैसे बिरसा मुंडा, झलकारी बाई, वासुदेव बलवंत फड़के , बिपिन चन्द्र पाल, पांडुरंग महादेव बापट, खान खोजे, उदयचंद जैन, शांति घोष , केशरी सिंह बारहठ आदि महान क्रांतिकारियों का  देश के प्रति किये गए बलिदान पर प्रकाश डाला डाला गया  और उनको सामूहिक श्रद्धांजलि दी गयी 
        फाउन्डेशन के संयोजक हरविलास गुप्ता के अनुसार आगामी महीनों में भी हर माह ऐसे ही कार्यक्रम आयोजित होते रहेंगे जिनमे सम्बंधित  माह में जन्मे क्रांतिकारियों का सामूहिक रूप से स्मरण करके उनको श्रद्धांजलि देकर जन्मदिन मनाया जायेगा।  फाउन्डेशन का प्रयास रहेगा कि लोगो के दिलो दिमाग से  क्रन्तिकारियों का बलिदान विस्मृत न होने पाए।  
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि  महापौर तेलूराम कम्बोज ने  विचार व्यक्त करते हुए कहा कि आज हमारी बहन बेटियों को रानी लक्ष्मी बाई का अनुकरण करते हुए न केवल राष्ट्र के प्रति अपना संभव योगदान देने को तत्पर रहना होगा बल्कि उन्हें समाज में व्याप्त कुरीतियों और अत्याचारों का डटकर मुकाबला करना होगा। उन्होंने कहा कि  महिलाओं को परिवार, समाज और देश के प्रति अपने उत्तरदायित्व को समझना होगा । महापौर ने कहा कि इस कार्यक्रम के संयोजक तथा शहीद स्मृति फाउन्डेशन के अध्यक्ष श्री हरविलास गुप्ता साधुवाद के पात्र हैं जो इस तरह के कार्यक्रमों को सतत रूप से कर रहे हैं निश्चित रूप से ऐसे कार्यक्रमों से एक ओर तो लोगो में राष्ट्रीयता की भावना जागृत होती  है तथा दूसरी ओर समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त होता है। साथ ही लोगो का विशेषकर युवा पीढ़ी का आह्वान करते हुए कहा कि श्री हरविलास  गुप्ता द्वारा राष्ट्रीय पुनर्जागरण हेतु चलायी जा रही इस मुहीम में पूरे मनोयोग से सहभागिता निभाएं। एडवांस इंस्टिट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट की प्रबंध निदेशिका श्री मती बाणी डे ने अतिथियों का धन्यवाद किया और  छात्र छात्राओं  को संबोधित करते हुए कहा कि राष्ट्र निर्माण में उन्हें महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी इसके लिए उन्हें रानी लक्ष्मीबाई, बलवंत फडके, झलकारी बाई और शांति घोष जैसे आदर्शों पर चलने का संकल्प लेना होगा। 

Wednesday, November 14, 2012

रानी लक्ष्मीबाई : वीरता और शौर्य की बेमिसाल कहानी





देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली रानी लक्ष्मीबाई के अप्रतिम शौर्य से चकित अंग्रेजों ने भी उनकी प्रशंसा की थी और वह अपनी वीरता के किस्सों को लेकर किंवदंती बन चुकी हैं.

RANI LAKSHMI BAI रानी लक्ष्मीबाई का जीवन
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1828 को काशी के असीघाट, वाराणसी में हुआ था. इनके पिता का नाम मोरोपंत तांबे और माता का नाम ‘भागीरथी बाई’ था. इनका बचपन का नाम ‘मणिकर्णिका’ रखा गया परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को ‘मनु’ पुकारा जाता था.

मनु जब मात्र चार साल की थीं, तब उनकी मां का निधन हो गया. पत्नी के निधन के बाद मोरोपंत मनु को लेकर झांसी चले गए. रानी लक्ष्मी बाई का बचपन उनके नाना के घर में बीता, जहां वह “छबीली” कहकर पुकारी जाती थी. जब उनकी उम्र 12 साल की थी, तभी उनकी शादी झांसी के राजा गंगाधर राव के साथ कर दी गई.

रानी लक्ष्मीबाई की शादी
उनकी शादी के बाद झांसी की आर्थिक स्थिति में अप्रत्याशित सुधार हुआ. इसके बाद मनु का नाम लक्ष्मीबाई रखा गया.

अश्वारोहण और शस्त्र-संधान में निपुण महारानी लक्ष्मीबाई ने झांसी किले के अंदर ही महिला-सेना खड़ी कर ली थी, जिसका संचालन वह स्वयं मर्दानी पोशाक पहनकर करती थीं. उनके पति राजा गंगाधर राव यह सब देखकर प्रसन्न रहते. कुछ समय बाद लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया, पर कुछ ही महीने बाद बालक की मृत्यु हो गई.

मुसीबतों का पहाड़
पुत्र वियोग के आघात से दु:खी राजा ने 21 नवंबर, 1853 को प्राण त्याग दिए. झांसी शोक में डूब गई. अंग्रेजों ने अपनी कुटिल नीति के चलते झांसी पर चढ़ाई कर दी. रानी ने तोपों से युद्ध करने की रणनीति बनाते हुए कड़कबिजली, घनगर्जन, भवानीशंकर आदि तोपों को किले पर अपने विश्वासपात्र तोपची के नेतृत्व में लगा दिया.

raniरानी लक्ष्मीबाई का चण्डी स्वरूप
14 मार्च, 1857 से आठ दिन तक तोपें किले से आग उगलती रहीं. अंग्रेज सेनापति ह्यूरोज लक्ष्मीबाई की किलेबंदी देखकर दंग रह गया. रानी रणचंडी का साक्षात रूप रखे पीठ पर दत्तक पुत्र दामोदर राव को बांधे भयंकर युद्ध करती रहीं. झांसी की मुट्ठी भर सेना ने रानी को सलाह दी कि वह कालपी की ओर चली जाएं. झलकारी बाई और मुंदर सखियों ने भी रणभूमि में अपना खूब कौशल दिखाया. अपने विश्वसनीय चार-पांच घुड़सवारों को लेकर रानी कालपी की ओर बढ़ीं. अंग्रेज सैनिक रानी का पीछा करते रहे. कैप्टन वाकर ने उनका पीछा किया और उन्हें घायल कर दिया.

अंतिम जंग का दृश्य
22 मई, 1857 को क्रांतिकारियों को कालपी छोड़कर ग्वालियर जाना पड़ा. 17 जून को फिर युद्ध हुआ. रानी के भयंकर प्रहारों से अंग्रेजों को पीछे हटना पड़ा. महारानी की विजय हुई, लेकिन 18 जून को ह्यूरोज स्वयं युद्धभूमि में आ डटा. लक्ष्मीबाई ने दामोदर राव को रामचंद्र देशमुख को सौंप दिया. सोनरेखा नाले को रानी का घोड़ा पार नहीं कर सका. वहीं एक सैनिक ने पीछे से रानी पर तलवार से ऐसा जोरदार प्रहार किया कि उनके सिर का दाहिना भाग कट गया और आंख बाहर निकल आई. घायल होते हुए भी उन्होंने उस अंग्रेज सैनिक का काम तमाम कर दिया और फिर अपने प्राण त्याग दिए. 18 जून, 1857 को बाबा गंगादास की कुटिया में जहां इस वीर महारानी ने प्राणांत किया वहीं चिता बनाकर उनका अंतिम संस्कार किया गया.

लक्ष्मीबाई ने कम उम्र में ही साबित कर दिया कि वह न सिर्फ बेहतरीन सेनापति हैं बल्कि कुशल प्रशासक भी हैं. वह महिलाओं को अधिकार संपन्न बनाने की भी पक्षधर थीं. उन्होंने अपनी सेना में महिलाओं की भर्ती की थी.

आज कुछ लोग जो खुद को महिला सशक्तिकरण का अगुआ बताते हैं वह भी स्त्रियों को सेना आदि में भेजने के खिलाफ हैं पर इन सब के लिए रानी लक्ष्मीबाई एक उदाहरण हैं कि अगर महिलाएं चाहें तो कोई भी मुकाम हासिल कर सकती हैं.

Monday, November 12, 2012

अहिंसा से नहीं, नेता जी के संघर्ष से मिली आजादी


अहिंसा को आधार मान कर आज़ादी का ढोल पीटने वाले शायद ये भूल जाते हैं कि 1942 का भारत छोडो आन्दोलन असफल होने के बाद देश में एक ठहराव, एक निर्वात ( वैक्क्यूम ) सा आ गया था। क्रांतिकारी  आन्दोलन भी देश के अंदर कुछ हल्का पड़  गया था लेकिन ख़त्म नहीं हुआ था। नेता जी का सशस्त्र युद्ध अंग्रेजों की नाक में दम किये हुए था। अंग्रेज सेना में भर्ती  भारतीय नौजवान नेता जी के साथ होते जा रहे थे। गाँधी जी का अहिंसा आन्दोलन क्षीण हो चुका  था। लोगों की नज़र अब नेता जी पर टिकी हुई थी। 
हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए परमाणु बम ने जापान और ज़र्मनी के हौसले पस्त कर दिए थे। परिणामस्वरुप आज़ाद हिन्द फ़ौज को भी धक्का लगा। 1945 तक यह युद्ध पूरी ताकत से आगे बढ़ता गया। किन्तु परमाणु हमले के प्रहार ने जर्मनी  और जापान को आगे बढ़ने से रोक दिया और परिणाम स्वरुप नेता जी सुभाष का आगे बढ़ना भी मुश्किल हो गया। देश के अन्दर अहिंसा आन्दोलन दम तोड़ चुका  था लेकिन क्रन्तिकारी हौसले कायम थे जिसके परिणामस्वरूप नौसेना और थलसेना में भी विद्रोह देखने को मिला।
युद्ध समाप्त होने के बाद भारतीय नौसेना के बेड़े  भारत लौट  रहे थे, उन्ही दिनों भारतीय नौसेना का एक जहाज अराकान में पहुंचा। जहाज के कुछ भारतीय अफसर और कर्मचारी नगर भ्रमण को निकले। उनसे कुछ स्थानीय भारतीय लोग  बाज़ार में मिले और उन्हें धिक्कारा और कहा " आप लोगों को धिक्कार है कि आप भारत की आज़ादी के लिए न लड़कर उसकी गुलामी को स्थाई करने के लिए लड़े , यही नहीं आप लोगों ने दूसरे  स्वतंत्र देशों को भी अंग्रेजों का  गुलाम बनाने मे मदद की। आप सबसे  तो नेता जी की आज़ाद हिन्द फ़ौज लाख गुना अच्छी है जो भूखे प्यासे रहकर अपने देश को आज़ाद करने की लड़ाई लड़ रही है । आप लोगों को विजय की ख़ुशी मनाने के स्थान पर चुल्लू भर पानी में डूबकर मर जाना चाहिए". यह अग्रेंजो की जीत और भारत की हार है।
यह धिक्कार भरी जन प्रतिक्रिया सुनकर उन्होंने संकल्प कर लिया कि या तो देश को आज़ाद कराएँगे या प्राण दे देंगे। देखते ही  देखते सभी जवानों ने "जय हिन्द" के नारों से क्षेत्र को गुंजायमान कर दिया। विशाखापट्नम, कोचीन , मद्रास सभी  बंदरगाहों पर आन्दोलन  फ़ैल गया। विद्रोह में सम्मिलित होने वाले जहाजों में प्रमुख जहाज थे, "हिंदुस्तान", "कावेरी", "सतलज", "नर्मदा", "असम ", "यमुना" , "कोच्चि" आदि।
यानि सम्पूर्ण भारत के जहाजी बड़े विद्रोह में शामिल हो गए थे और उन पर आज़ाद  हिन्द फ़ौज का झंडा और नेता जी का चित्र लगा दिया  गया था। सभी जहाजो से जय हिन्द और नेता जी की जय के नारे गूंजने लगे थे।  इस विद्रोह से निपटने के लिए अग्रेजों ने थल सेना को नौसेना के जहाजों पर गोलियां चलाने  का आदेश दिया। परन्तु थल सेना ने विद्रोह कर दिया और नौसेना पर गोलियां चलने से मना  कर दिया। इसके विपरीत विद्रोही सैनिको और  ब्रिटिश सैनिको के साथ जमकर संघर्ष हुआ।इसमें सैकड़ों अंग्रेजी सैनिक मारे गए। इससे  ब्रिटिश हुकूमत घबरा गयी और संधि के लिए बल्लभ भाई पटेल के माध्यम से वार्ता शुरू की गयी। विद्रोह शांत हो गया , परन्तु अंग्रेज अपनी आदत के अनुसार संधि वार्ता की शर्तों पर टिका नहीं और विद्रोहियों को उसका दुष्परिणाम  भुगतना पड़ा।  किन्तु इस बार का विद्रोह अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें हिलाने में कामयाब रहा। तत्कालीन ब्रिटिश प्रधान मंत्री लार्ड एटली ने ब्रिटिश संसद में बयान देते हुए कहा था " ब्रिटेन भारत को सत्ता का हस्तांतरण इसलिए कर रहा है क्योंकि अब भारतीय सेना ब्रिटेन के प्रति बफादार नहीं रही, और ब्रिटेन इतनी बड़ी अपनी स्वयं की सेना भारत में तैनात नहीं कर सकता जो भारत को गुलाम बनाये रख सके". 
ब्रिटिश साम्राज्य ने भारत  को सत्ता हस्तांतरण करते समय सुभाष बोस के महत्व को बड़ी ईमानदारी से स्वीकार करते हुए कहा था कि "भारत सरकार  को शीघ्र ही यह विदित हो गया कि  अंग्रेजी राज्य की रीढ़ की हड्डी भारतीय सेना नेता जी के साथ  है और उस पर अधिक समय तक निर्भर नहीं रहा जा सकता है"। इससे स्पष्ट है कि  आज़ादी अहिंसा से नहीं नेता जी के संघर्ष  से मिली है। 

Wednesday, October 31, 2012

आधुनिक भारत के सफल वास्तुकार थे पटेल : हरविलास गुप्ता


गाज़ियाबाद। आज  शहीद स्मृति फाउंड़ेशन ने सरदार बल्लभ भाई पटेल का 138 वां  जन्म दिवस मनाया । इस अवसर पर संघीय गणराज्य भारत के निर्माण में  सरदार पटेल  के  योगदान को याद कर उनको श्रद्धा सुमन अर्पित किये। सरदार पटेल के चित्र पर माल्यार्पण करने के उपरांत पटेल के जीवन पर प्रकाश डालते हुए संस्था के अध्यक्ष हरविलास गुप्ता ने कहा कि  अगर सरदार पटेल को लोह पुरुष के साथ साथ आधुनिक भारत का चाणक्य कहा  जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. जिस प्रकार महान कूटनीतिज्ञ आचार्य चाणक्य ने एक समय भारत देश पर हुए सिकंदर रुपी विदेशी आक्रांता  को न केवल रोका अपितु अनेक खण्डों में बटें देश को चन्द्रगुप्त मौर्य के नेतृत्व में एकछत्र राज्य में परिवर्तित कर दिया था उसी प्रकार सरदार पटेल ने भारत देश से न केवल अँगरेज़ रुपी विदेशी आक्रमणकारियों को भगाया बल्कि स्वतंत्र भारत को  एक सूत्र में पिरो कर विश्व के एक मजबूत राष्ट्र के रूप में स्थापित  किया। देश की आज़ादी के उपरांत जो सबसे बड़ी समस्या थी वह थी कि सैकड़ों  रियासतों  और लघुराज्यों में बंटे भारत को कैसे एकीकृत किया जाये। इस उत्तरदायित्व  को सरदार पटेल ने बखूबी निभाया। श्री गुप्ता ने कहा कि  यदि सरदार पटेल ने प्रयास न किया होता  तो आज हैदराबाद भी कश्मीर की तरह विवाद का केंद्र होता । उन्होंने कहा कि आज के राजनीतिज्ञों को सरदार पटेल के जीवन से दृढ इच्छाशक्ति, राष्ट्र के प्रति समर्पण और सुचिता की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। इस अवसर पर कमलेश कुमार, संतोष गुप्ता, संजय  पाण्डेय ने भी अपना विचार व्यक्त किये।  निर्मल कपूर, चंन्दन माला, आज़ाद कौशिक , विनीत सिंह, दिनेश मिश्र, दिल बहादुर समेत संस्था के कई अन्य सदस्य मौजूद रहे। 

Sunday, October 14, 2012

"महाश्राद्ध" आयोजन में शहीदों को तर्पण देने के लिए उमड़ा राष्ट्र भक्तों का शैलाब


 गाज़ियाबाद   पूर्व घोषित कार्यक्रम के अनुसार आज अमर शहीदों हेतु  सामूहिक श्राद्ध तर्पण  कार्यक्रम "महाश्राद्ध" बड़े ही श्रद्धा भाव से मनाया गया। कार्यक्रम की शुरुआत 10:30 बजे से होनी थी परन्तु  आज सुबह 9  बजे से ही घंटाघर स्थित राम लीला मैदान पर  राष्ट्रभक्तो का जमावड़ा शुरू होने लगा था। अमर शहीद स्मृति फाउन्डेशन के तत्वाधान में आयोजित इस अभूतपूर्व कार्यक्रम में सभी आयु, जाति और वर्गों के लोगो ने सहभागिता निभाई . क्षेत्र के समाजसेवी, व्यापारी, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों से लेकर मजदूरों और रिक्शा  चालक भाइयों ने शहीदों को  श्रद्धांजलि अर्पित कर तर्पण किया। 
कार्यक्रम की शुरुआत भारत माता की स्तुति से हुआ . कार्यक्रम में जाने माने  साहित्यकार और ओजस्वी  वक्ता प्रोफेसर डा हरीन्द्र श्रीवास्तव ने शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करने के उपरांत विचार व्यक्त करते हुए कहा कि उन्होंने अपने जीवन काल में इस तरह का "अनूठा कार्यक्रम" पहली बार देखा है इसलिए कार्यक्रम के आयोजक हर विलास गुप्ता  को साधुवाद व बधाई दी। डा हरीन्द्र ने कहा कि इस तरह के कार्यक्रमों के आयोजन से अमर शहीदों की स्मृति और उनके योगदान को अक्षुण बनाये रखा जा सकता है।  कार्यक्रम के संयोजक हरविलास गुप्ता ने कहा कि वे इश्वर के आभारी  हैं जो उन्हें इस प्रकार के कार्यक्रम के आयोजन की प्रेरणा मिली, उन्होंने कहा कि भौतिकतावाद में आकंठ डूबती जा रही युवा पीढ़ी को  अमर शहीदों के चरित्र और आचरण से अवगत करा कर ही उनमे राष्ट्रीयता की भावना लायी जा सकती है। श्री गुप्ता ने आगे कहा कि शहीदों की याद भारतीय जनमानस में चिर स्थापित करने के लिए वे  इस प्रकार के कार्यक्रमों की सतत श्रंखला जारी रखेंगे, साथ ही अपील की कि आज हर भारतीय का दायित्व है कि वह देश के प्रति शहीद हुए हुतात्माओं का मूल्यात्मक अनुसरण करे तथा  दूसरों को प्रेरित करे।   अपने वक्तव्य के दौरान उन्होंने जानकारी दी कि  वे एक ऐसे ऐतिहासिक शोध ग्रन्थ का संकलन व संपादन कर रहे हैं जिसमे लगभग एक हजार से अधिक क्रांतिकारी शहीदों का सचित्र  वर्णन होगा। 

महाश्राद्ध दिवस के आयोजन अवसर पर शहीदों के चित्रों पर पुष्पार्पण कर उपस्थित लोगो ने मिटटी के पात्र में गंगा जल से सूर्योमुख होकर हजारों शहीदों का तर्पण किया तथा उनके सम्मुख दीप प्रज्ज्वलित कर उन्हें सामूहिक श्रद्धांजलि दी।  देश की आज़ादी के लिए मर मिटने वाले उन हजारों गुमनाम शहीदों के  नाम पर भी तर्पण किया गया जिनका नाम इतिहास की पुस्तकों में भले न हो पर उन्होंने स्वतंत्र भारत की आधारशिला रखने में नीव के गुमनाम पत्थर की  भूमिका निभाई। पंडित शंकर दत्त शास्त्री ने  शास्त्रीय  विधि विधान से पांच ब्राम्हणों सहित सामूहिक मन्त्रोच्चार के साथ श्राद्ध तर्पण कराया। श्राद्ध तर्पण के बाद ब्रम्हभोज तथा  सामूहिक भोज कराया गया।   कार्यक्रम में कविवर कृष्ण मित्र और युवा कवि संजय पाण्डेय  ने अपनी कविता पाठ के माध्यम से अमर शहीदों को नमन किया। कार्यक्रम में  मंच संचालन  मयंक गोयल ने किया। कार्यक्रम में हरीन्द्र श्रीवास्तव , राजीव मोहन,  तेलूराम कम्बोज(महापौर), महंत नारायण गिरि , कृष्ण वीर सिरोही,रवि मोहन, राकेश मोहन,शरद मित्तल, हितेश मोहन, नन्दलाल शर्मा, अरुण शर्मा, सुनील शर्मा, बी के अग्रवाल, एम् के अग्रवाल, एम् सी सिंघल, सौरभ गर्ग, आर पी बंसल, मयंक गोयल, यश गुप्ता, विनोद कुमार, उदित मोहन गर्ग, रुचिन  मोहन, राजेश कंसल, संतोष गुप्ता, अजय शर्मा , मदन मोहन, महावीर बंसल आदि समेत सैकड़ों लोग उपस्थित रहे।

Thursday, September 27, 2012


देश प्रेमियों,  देश की  आज़ादी के लिए अपने प्राण न्योछावर करने वाले शहीदों एवं क्रांतिकारियों की यादगार पुनः स्थापित करने के लिए बड़े प्रयत्न  से  एक शोध ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है, इस ग्रन्थ में लगभग एक हजार  क्रन्तिकारी और शहीदों का परिचय प्रस्तुत किया गया है, इस संकलन को अंतिम रूप देने के लिए विभिन्न स्रोतों से सहयोग लिया और इसके लिए अंदमान निकोबार स्थित सेलुलर जेल भी मैं गया, उक्त ग्रन्थ में से प्रतिदिन  कुछ क्रन्तिकारी और शहीदों      का संक्षिप्त परिचय आप तक पहुचाने हेतु   facebook (http://www.facebook.com/harvilas.gupta.7)   तथा मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित किया जायेगा , यदि आप को मेरा यह प्रयास अच्छा लगे तो उक्त क्रांतिकारियों का जीवन परिचय अपने मित्रों को फॉरवर्ड करें . आप सब की प्रतिक्रिया की अपेक्षा रहेगी ....

Harvilas Gupta

Email: harvilasgupta@gmail.com



आज की परिचय श्रंखला में प्रस्तुत हैं -
वीर नारायण सिंह 
वीरांगना उदा देवी
जीनत महल
बेगम हजरत महल
 रानी वेलु नाच्चियर 
राव तुला राम  
प्राण सुख यादव
राय अहमद खान खरल


वीर नारायण सिंह 

जन्म : १७९५ में छत्तीसगढ़ सोनाखान में जमीदार परिवार में पैदा हुए. १८५६ में अकाल पीड़ित लोगो कि सहायता की. अक्टूबर १८५६ में इनको एक झूठे मामले में फंसा कर जेल भेज  दिया गया. जनता ने जेल पर धावा बोलकर छुड़ाया तथा उनका  ब्रिटिश सेना से मुकाबला हुआ. हर जाने के उपरांत १० दिसंबर १८५७ को फंसी पर चढ़ा दिया गया. 


राव तुला राम 

राव तुलाराम भारत के एक प्रमुख स्वतन्त्रता सेनानी रेवाड़ी के नरेश थे। इनका जन्म ९ दिसंबर १८२५ को  यादव वंश में हुआ ।
 इन्होने १८५७ में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था, जिसमे उन्होंने तन मान धन लगाकर देश के लिए सर्वस्व समर्पित किया
. देश कि आज़ादी के लिए उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय सहयोग जुटाने कि कोशिश की. वे भारत की आज़ादी के प्रमुख नायकों में से एक मने जाते हैं
.  मृत्यु : २३ सितम्बर १८६३ में काबुल में हुई. 


जीनत महल
भारत के अंतिम मुग़ल बादशाह की  बेग़म थी. इनका जन्म १८२३ में हुआ. अग्रेजो द्वारा बहादुर शाह जफ़र 
कि गिरफ़्तारी के बाद उन्ही के साथ रंगून निर्वासित कर दिया गया. मृत्यु : १८८६.


बेग़म हजरत महल
लखनऊ में 1857 की क्रांति का नेतृत्व बेगम हजरत महल ने किया। अपने नाबालिग पुत्र बिरजिस कादर को गद्दी पर बिठाकर
 उन्होंने अंग्रेजी सेना का स्वयं मुकाबला किया। उनमें संगठन की अभूतपूर्व क्षमता थी और इसी कारण अवध के जमींदार,
किसान और सैनिक उनके नेतृत्व में आगे बढ़ते रहे। आलमबाग की लड़ाई के दौरान अपने जांबाज सिपाहियों की उन्होंने
भरपूर हौसला आफजाई की और हाथी पर सवार होकर अपने सैनिकों के साथ दिन-रात युद्ध करती रहीं। लखनऊ में पराजय के
 बाद वह अवध के देहातों मे चली गईं और वहां भी क्रांति की चिंगारी सुलगाई।


रानी वेलु नाच्चियर 
जन्म १७५०  में, दक्षिण भारतीय रानी थी. . ईस्ट इण्डिया कंपनी के खिलाफ जेहाद छेड़ा . इनके पति १७७२ में मरे गए. 
उस संहार में स्वयं बच गयी . 


प्राण सुख यादव 
जन्म : सन १८०२ हरियाणा में , अपने समय के अद्भुत सेनानायक थे. है सिंह नलवा के अनन्य मित्रों में से एक थे.
 राव तुलाराम के साथ मिलकर अंग्रेजों से युद्ध किया. १८८८ में इनकी मृत्यु हो गयी.


राय अहमद खान खरल 
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कि लड़ाई में इन्होने महत्वपूर्ण योगदान दिया. उसी दौरान इन्होने गोगरा सेंट्रल जेल पर हमला करके 
सैकड़ों स्वतंत्रता सेनानियों को छुड़ाया और कमिश्नर बर्कले को मरकर सैकड़ो हिन्दुस्तानियों के मरने का प्रतिशोध लिया. 
अंत में अंगेजी सेनाओ के साथ युद्ध करते हुए शहीद हो गए. 

गाँधी चाहते तो फांसी न चढ़ते भगत सिंह


भगतसिंह जयंती  पर विशेष 

आज हम आजाद हैं. भारत को अंग्रेजों से साल 1947 में आजादी मिली थी. लेकिन यह आजादी भी बहुत मुश्किल से मिली थी. इस आजादी का हमने बहुत बड़ा मोल भी चुकाया है. देश के हजारों युवाओं ने आजादी की बेला पर अपनी जान को हंसते-हंसते न्यौछावर कर दिया. देश के ऐसे ही युवा शहीद थे भगत सिंह.

शहीद-ए-आजम भगत सिंह

Shaheed Bhagat Singh
जन्मस्थल गाँव बंगा, जिला लायलपुरपंजाब (अब पाकिस्तान में)
शहादत  स्थल:लाहौर जेल, पंजाब (अब पाकिस्तान में)
आन्दोलन:भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम
प्रमुख संगठन:नौजवान भारत सभा, हिदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन

भगत सिंह का नाम आते ही हमारे दिल में एक ऐसे स्वतंत्रता सेनानी का चेहरा सामने आता है जिन्होंने देश को आजादी दिलाने के लिए क्रांति का रास्ता चुना और फांसी को हंसते-हंसते स्वीकार किया. भगत सिंह ने उस समय युवाओं के दिल में क्रांति की जो मसाल जलाई थी उसे अद्वितीय माना जाता है. भगत सिंह ने देश की आजादी के लिए क्रांति को ही सशक्त रास्ता बताया और खुद भी इसी पर चलते हुए शहीद हुए और शहीद-ए-आजम कहलाए.

भगतसिंह का जन्म:
कई लोग भगतसिंह का जन्म 27 सितंबर, 1907 बताते हैं तो कुछ 28 सितंबर, 1907. उनकी जन्मतिथि पर संशय जरूर है लेकिन उनकी देशभक्ति पर रत्ती भर भी शक नहीं किया जा सकता. अपने अंतिम समय में भी उन्होंने लोगों की दया की चाह नहीं की और फांसी को ही स्वीकार करना सही समझा.


संक्षिप्त परिचय 

भगत सिंह का जन्म २८ सितंबर, १९०७ में हुआ था। उनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था। यह एक सिख परिवार था जिसने आर्य समाज के विचार को अपना लिया था। अमृतसर में १३ अप्रैल, १९१९ को हुए जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड ने भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। लाहौर के नेशनल कॉलेज़ की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह ने भारत की आज़ादी के लिये नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी। काकोरी काण्ड में राम प्रसाद 'बिस्मिल' सहित ४ क्रान्तिकारियों को फाँसी व १६ अन्य को कारावास की सजाओं से भगत सिंह इतने अधिक उद्विग्न हुए कि पण्डित चन्द्रशेखर आजाद के साथ उनकी पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन से जुड गये और उसे एक नया नाम दिया हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन । इस संगठन का उद्देश्य सेवा,त्याग और पीड़ा झेल सकने वाले नवयुवक तैयार करना था। भगत सिंह ने राजगुरु के साथ मिलकर १७ दिसम्बर १९२८ को लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज़ अधिकारी जे० पी० सांडर्स को मारा था। इस कार्रवाई में क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद ने उनकी पूरी सहायता की थी। क्रान्तिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने अलीपुर रोड दिल्ली स्थित ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेण्ट्रल एसेम्बली के सभागार में ८ अप्रैल १९२९ को अंग्रेज़ सरकार को जगाने के लिये बम और पर्चे फेंके थे। बम फेंकने के बाद वहीं पर दोनों ने अपनी गिरफ्तारी भी दी।

क्रान्तिकारी गतिविधियाँ

उस समय भगत सिंह करीब १२ वर्ष के थे जब जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड हुआ था। इसकी सूचना मिलते ही भगत सिंह अपने स्कूल से १२ मील पैदल चलकर जलियाँवाला बाग पहुँच गये। इस उम्र में भगत सिंह अपने चाचाओं की क्रान्तिकारी किताबें पढ़ कर सोचते थे कि इनका रास्ता सही है कि नहीं ? गांधी जी का असहयोग आन्दोलन छिड़ने के बाद वे गान्धी जी के अहिंसात्मक तरीकों और क्रान्तिकारियों के हिंसक आन्दोलन में से अपने लिये रास्ता चुनने लगे। गान्धी जी के असहयोग आन्दोलन को रद्द कर देने के कारण देश के तमाम नवयुवकों की भाँति उनमें भी रोष हुआ और अन्ततः उन्होंने देश की स्वतन्त्रता के लिये क्रान्ति का मार्ग अपनाना अनुचित नहीं समझा। उन्होंने जुलूसों में भाग लेना प्रारम्भ किया तथा कई क्रान्तिकारी दलों के सदस्य बने। बाद में वे अपने दल के प्रमुख क्रान्तिकारियों के प्रतिनिधि भी बने। उनके दल के प्रमुख क्रान्तिकारियों में चन्द्रशेखर आजाद, भगवतीचरण व्होरा, सुखदेवराजगुरु इत्यादि थे।

लाला जी की मृत्यु का प्रतिशोध


१९२८ में साइमन कमीशन के बहिष्कार के लिये भयानक प्रदर्शन हुए। इन प्रदर्शनों मे भाग लेने वालों पर अंग्रेजी शासन ने लाठी चार्ज भी किया। इसी लाठी चार्ज से आहत होकर लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गयी। अब इनसे रहा न गया। एक गुप्त योजना के तहत इन्होंने पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट स्काट को मारने की योजना सोची। सोची गयी योजना के अनुसार भगत सिंह और राजगुरु लाहौर कोतवाली के सामने व्यस्त मुद्रा में टहलने लगे। उधर बटुकेश्वर दत्त अपनी साइकिल को लेकर ऐसे बैठ गये जैसे कि वो ख़राब हो गयी हो । दत्त के इशारे पर दोनों सचेत हो गये। उधर चन्द्रशेखर आज़ाद पास के डी० ए० वी० स्कूल की चहारदीवारी के पास छिपकर घटना को अंजाम देने में रक्षक का काम कर रहे थे।
१७ दिस्मबर १९२८ को करीब सवा चार बजे, स्काट की जगह, ए० एस० पी० सॉण्डर्स के आते ही राजगुरु ने एक गोली सीधी उसके सर में मारी जिसके तुरन्त बाद वह होश खो बैठा। इसके बाद भगत सिंह ने ३-४ गोली दाग कर उसके मरने का पूरा इन्तज़ाम कर दिया। ये दोनों जैसे ही भाग रहे थे कि एक सिपाही चनन सिंह ने इनका पीछा करना शुरू कर दिया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने उसे सावधान किया - "आगे बढ़े तो गोली मार दूँगा।" नहीं मानने पर आज़ाद ने उसे गोली मार दी। इस तरह इन लोगों ने लाला लाजपत राय की मौत का बदला ले लिया ।

एसेम्बली में बम फेंकना


भगत सिंह यद्यपि रक्तपात के पक्षधर नहीं थे परन्तु वे कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों से पूरी तरह प्रभावित थे। यही नहीं, वे समाजवाद के पक्के पोषक भी थे। इसी कारण से उन्हें पूँजीपतियों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसन्द नहीं आती थी। उस समय चूँकि अँग्रेज ही सर्वेसर्वा थे तथा बहुत कम भारतीय उद्योगपति उन्नति कर पाये थे, अतः अँग्रेजों के मजदूरों के प्रति अत्याचार से उनका विरोध स्वाभाविक था। मजदूर विरोधी ऐसी नीतियों को ब्रिटिश संसद में पारित न होने देना उनके दल का निर्णय था। सभी चाहते थे कि अँग्रेजों को पता चलना चाहिये कि हिन्दुस्तानी जाग चुके हैं और उनके हृदय में ऐसी नीतियों के प्रति आक्रोश है। ऐसा करने के लिये ही उन्होंने दिल्ली की केन्द्रीय एसेम्बली में बम फेंकने की योजना बनायी थी।
भगत सिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून खराबा न हो और अँग्रेजों तक उनकी 'आवाज़' भी पहुँचे। हालाँकि प्रारम्भ में उनके दल के सब लोग ऐसा नहीं सोचते थे पर अन्त में सर्वसम्मति से भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त का नाम चुना गया। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ८ अप्रैल, १९२९ को केन्द्रीय असेम्बली में इन दोनों ने एक ऐसे स्थान पर बम फेंका जहाँ कोई मौजूद न था, अन्यथा उसे चोट लग सकती थी। पूरा हाल धुएँ से भर गया। भगत सिंह चाहते तो भाग भी सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें दण्ड स्वीकार है चाहें वह फाँसी ही क्यों न हो; अतः उन्होंने भागने से मना कर दिया। उस समय वे दोनों खाकी कमीज़ तथा निकर पहने हुए थे। बम फटने के बाद उन्होंने "इंकलाब! - जिन्दाबाद!! साम्राज्यवाद! - मुर्दाबाद!!" का नारा लगाया और अपने साथ लाये हुए पर्चे हवा में उछाल दिये। इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गयी और दोनों को ग़िरफ़्तार कर लिया गया।

जेल के दिन

जेल में भगत सिंह ने करीब २ साल रहे। इस दौरान वे लेख लिखकर अपने क्रान्तिकारी विचार व्यक्त करते रहे। जेल में रहते हुए उनका अध्ययन बराबर जारी रहा। उनके उस दौरान लिखे गये लेख व सगे सम्बन्धियों को लिखे गये पत्र आज भी उनके विचारों के दर्पण हैं। अपने लेखों में उन्होंने कई तरह से पूँजीपतियों को अपना शत्रु बताया है। उन्होंने लिखा कि मजदूरों का शोषण करने वाला चाहें एक भारतीय ही क्यों न हो, वह उनका शत्रु है। उन्होंने जेल में अंग्रेज़ी में एक लेख भी लिखा जिसका शीर्षक था मैं नास्तिक क्यों हूँ?" जेल में भगत सिंह व उनके साथियों ने ६४ दिनों तक भूख हडताल की। उनके एक साथी यतीन्द्रनाथ दास ने तो भूख हड़ताल में अपने प्राण ही त्याग दिये थे।

महान व्यक्तित्व के स्वामी थे भगत सिंह 



जेल के दिनों में उनके लिखे खतों व लेखों से उनके विचारों का अन्दाजा लगता है । उन्होंने भारतीय समाज में लिपि (पंजाबी की गुरुमुखी व शाहमुखी तथा हिन्दी और अरबी एवम् उर्दू के सन्दर्भ में विशेष रूप से), जाति और धर्म के कारण आयी दूरियों पर दुःख व्यक्त किया था। उन्होंने समाज के कमजोर वर्ग पर किसी भारतीय के प्रहार को भी उसी सख्ती से सोचा जितना कि किसी अंग्रेज के द्वारा किये गये अत्याचार को ।
भगत सिंह को हिन्दी, उर्दू, पंजाबी तथा अंग्रेजी के अलावा बांग्ला भी आती थी जो उन्होंने बटुकेश्वर दत्त से सीखी थी । उनका विश्वास था कि उनकी शहादत से भारतीय जनता और उद्विग्न हो जायेगी और ऐसा उनके जिन्दा रहने से शायद ही हो पाये । इसी कारण उन्होंने मौत की सजा सुनाने के बाद भी माफ़ीनामा लिखने से साफ मना कर दिया था। पं० राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने अपनी आत्मकथा में जो-जो दिशा-निर्देश दिये थे, भगत सिंह ने उनका अक्षरश: पालन किया[4]। उन्होंने अंग्रेज सरकार को एक पत्र भी लिखा, जिसमें कहा गया था कि उन्हें अंग्रेज़ी सरकार के ख़िलाफ़ भारतीयों के युद्ध का प्रतीक एक युद्धबन्दी समझा जाये तथा फाँसी देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाये।[5] फाँसी के पहले ३ मार्च को अपने भाई कुलतार को भेजे एक पत्र में भगत सिंह ने लिखा था -
उन्हें यह फ़िक्र है हरदम, नयी तर्ज़-ए-ज़फ़ा क्या है?
हमें यह शौक है देखें, सितम की इन्तहा क्या है?
दहर से क्यों ख़फ़ा रहें, चर्ख का क्या ग़िला करें।
सारा जहाँ अदू सही, आओ! मुक़ाबला करें।।
इन जोशीली पंक्तियों से उनके शौर्य का अनुमान लगाया जा सकता है। चन्द्रशेखर आजाद से पहली मुलाकात के समय जलती हुई मोमबती पर हाथ रखकर उन्होंने कसम खायी थी कि उनकी जिन्दगी देश पर ही कुर्बान होगी और उन्होंने अपनी वह कसम पूरी कर दिखायी।

गाँधी चाहते तो फांसी  न चढ़ते भगत सिंह 





 अगर गांधी जी चाहते तो भगतसिंह को बचाया जा सकता था. अगर गांधीजी ने भगतसिंह का साथ दिया होता और उनकी रिहाई के लिए आवाज उठाई होती तो मुमकिन है देश अपना एक होनहार युवा क्रांतिकारी नहीं खोता.

भगत सिंह की मृत्यु के समय महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘मैंने किसी की जिंदगी को लेकर इतना रोमांच नहीं देखा जितना कि भगत सिंह के बारे में. हालांकि मैंने लाहौर में उसे एक छात्र के रूप में कई बार देखा है, मुझे भगत सिंह की विशेषताएं याद नहीं हैं, लेकिन पिछले एक महीने में भगत सिंह की देशभक्ति, उसके साहस और भारतीय मानवता के लिए उसके प्रेम की कहानी सुनना मेरे लिए गौरव की बात है.’ लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी कहा था कि ‘मैं देश के युवाओं को आगाह करता हूं कि वे उनके उदाहरण के रूप में हिंसा का अनुकरण नहीं करें.

उनके इस बयान के बाद यह सवाल देश के लगभग हर राज्य में गूंजा कि आखिर क्यूं गांधीजी ने देश के इस महान क्रांतिकारी को बचाने की दिशा में कार्य नहीं किया और क्यूं गांधीजी ने भगतसिंह की विचारधारा का विरोध किया?


इस सवाल के जवाब में कई लोग मानते हैं कि अगर महात्मा गांधी जी ने भगतसिंह का समर्थन किया होता तो उनकी खुद की विचारधारा पर सवाल खड़े होते और जिस अहिंसा के रास्ते पर वह बहुत ज्यादा आगे बढ़ चुके थे उस पर वह पीछे नहीं मुड़ सकते थे. इस चीज से साफ है कि गांधीजी और भगतसिंह की विचारधारा ही वह मुख्य वजह रही जिसकी वजह से दोनों के बीच टकराव हुए और गांधीजी ने भगतसिंह से दूरी बनाना ही सही समझा. भगत सिंह हिंसा और क्रांति को ही अपना रास्ता बनाना चाहते थे जबकि महात्मा गांधी अहिंसा के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं अपनाना चाहते थे.


अंतत: भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को 23 मार्च, 1931 को ही फांसी दे दी गई. यह फांसी यूं तो 24 मार्च, 1931 की सुबह फांसी दी जानी थी लेकिन ब्रितानिया हुकूमत ने नियमों का उल्लंघन कर एक रात पहले ही तीनों को चुपचाप लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी पर चढ़ा दिया था.
अंग्रेजों ने भगतसिंह को तो खत्म कर दिया पर वह भगत सिंह के विचारों को खत्म नहीं कर पाए जिसने देश की आजादी की नींव रख दी. आज भी देश में भगतसिंह क्रांति की पहचान हैं.

क्या शहीद भगत सिंह जी को न बचा पाने में गाँधी जी ज़िम्मेदार थे? अपनी टिप्पणियां जरूर भेजें .....


Friday, September 21, 2012


देश प्रेमियों,  देश की  आज़ादी के लिए अपने प्राण न्योछावर करने वाले शहीदों एवं क्रांतिकारियों की यादगार पुनः स्थापित करने के लिए बड़े प्रयत्न  से  एक शोध ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है, इस ग्रन्थ में लगभग एक हजार  क्रन्तिकारी और शहीदों का परिचय प्रस्तुत किया गया है, इस संकलन को अंतिम रूप देने के लिए विभिन्न स्रोतों से सहयोग लिया और इसके लिए अंदमान निकोबार स्थित सेलुलर जेल भी मैं गया, उक्त ग्रन्थ में से प्रतिदिन  कुछ क्रन्तिकारी और शहीदों      का संक्षिप्त परिचय आप तक पहुचाने हेतु   facebook (http://www.facebook.com/harvilas.gupta.7)   तथा मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित किया जायेगा , यदि आप को मेरा यह प्रयास अच्छा लगे तो उक्त क्रांतिकारियों का जीवन परिचय अपने मित्रों को फॉरवर्ड करें . आप सब की प्रतिक्रिया की अपेक्षा रहेगी ....

Harvilas Gupta

Email: harvilasgupta@gmail.com



आज की परिचय श्रंखला में प्रस्तुत हैं --
1) गुरु राम सिंह
२) वीर कुअर सिंह
३) रंगों जी बापू गुप्ते
४)महादेव गोबिंद रानाडे
५) महाराजा नन्द कुमार 
६) चित्तू पाण्डेय 



बाबा रामसिंह कूका


बाबा रामसिंह कूका का जन्म 1816 ई. में वसंत पंचमी पर लुधियाना के भैणी ग्राम में हुआ था। कुछ समय वे रणजीत सिंह की सेना में रहे, फिर घर आकर खेतीबाड़ी में लग गये, पर आध्यात्मिक प्रवृत्ति होने के कारण इनके प्रवचन सुनने लोग आने लगे। धीरे-धीरे इनके शिष्यों का एक अलग पंथ ही बन गया, जो कूका पंथ (नामधारी) कहलाया।
बाबा रामसिंह कूका भारत की आजादी के सर्वप्रथम प्रणेता (कूका विद्रोह), असहयोग आंदोलन के मुखिया, सिखों के नामधारी पंथ के संस्थापक, तथा महान समाज-सुधारक थे। संत गुरु राम सिंह ने 12 अप्रैल 1857 को श्री भैणी साहिब जिलालुधियाना (पंजाब) से जब अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध आवाज उठाई थी, तब उस समय भारतवासी गुलामी के साथ-साथ सामाजिक कुरीतियों के शिकार थे.  उन्होंने भी सर्वप्रथम अंग्रेजी शासन का बहिष्कार कर अपनी स्वतंत्र डाक और प्रशासन व्यवस्था चलायी थी। प्रतिवर्ष मकर संक्रांति पर भैणी गांव में मेला लगता था। १८७२ में मेले में आते समय उनके एक शिष्य को मुसलमानों ने घेर लिया। उन्होंने उसे पीटा और गोवध कर उसके मुंह में गोमांस ठूंस दिया। यह सुनकर गुरू रामसिंह के शिष्य भड़क गये। उन्होंने उस गांव पर हमला बोल दिया, पर दूसरी ओर से अंग्रेज सेना आ गयी। अत: युध्द का पासा पलट गया।
इस संघर्ष में अनेक कूका वीर शहीद हुए और 68 पकड़ लिये गये। इनमें से 50 को सत्रह जनवरी 1872 को मलेरकोटला में तोप के सामने खड़ाकर उड़ा दिया गया। शेष 18 को अगले दिन फांसी दी गयी। दो दिन बाद गुरू रामसिंह को भी पकड़करबर्मा की मांडले जेल में भेज दिया गया। 14 साल तक वहां कठोर अत्याचार सहकर 1885 ई. में उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया।


वीर कुअर सिंह
कुंवर सिंह का जन्म १७७७ में बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर गांव में हुआ था। इनके पिता बाबू साहबजादा सिंह प्रसिद्ध शासक भोज के वंशजों में से थे। उनके छोटे भाई अमर सिंह, दयालु सिंह और राजपति सिंह एवं इसी खानदान के बाबू उदवंत सिंह, उमराव सिंह तथा गजराज सिंह नामी जागीरदार रहे तथा अपनी आजादी कायम रखने के खातिर सदा लड़ते रहे. १८५७ में अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए हिंदू और मुसलमानों ने मिलकर कदम बढ़ाया। मंगल पाण्डे की बहादुरी ने सारे देश में विप्लव मचा दिया। बिहार की दानापुर रेजिमेंट, बंगाल के बैरकपुरऔर रामगढ़ के सिपाहियों ने बगावत कर दी। मेरठ, कानपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, झांसी और दिल्ली में भी आग भड़क उठी। ऐसे हालात में बाबू कुंवर सिंह ने भारतीय सैनिकों का नेतृत्व किया।
27 अप्रैल 1857 को दानापुर के सिपाहियों, भोजपुरी जवानों और अन्य साथियों के साथ आरा नगर पर बाबू वीर कुंवर सिंह ने कब्जा जमा लिया। अंग्रेजों की लाख कोशिशों के बाद भी भोजपुर लंबे समय तक स्वतंत्र रहा। जब अंग्रेजी फौज ने आरा पर हमला करने की कोशिश की तो बीबीगंज और बिहिया के जंगलों में घमासान लड़ाई हुई। बहादुर स्वतंत्रता सेनानी जगदीशपुर की ओर बढ़ गए। आरा पर फिर से कब्जा जमाने के बाद अंग्रेजों ने जगदीशपुर पर आक्रमण कर दिया। बाबू कुंवर सिंह और अमर सिंह को जन्म भूमि छोड़नी पड़ी। अमर सिंह अंग्रेजों से छापामार लड़ाई लड़ते रहे और बाबू कुंवर सिंह रामगढ़ के बहादुर सिपाहियों के साथ बांदा, रीवां, आजमगढ़, बनारस, बलिया, गाजीपुर एवं गोरखपुर में विप्लव के नगाड़े बजाते रहे। ब्रिटिश इतिहासकार होम्स ने उनके बारे में लिखा है, 'उस बूढ़े राजपूत ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध अद्भुत वीरता और आन-बान के साथ लड़ाई लड़ी। यह गनीमत थी कि युद्ध के समय कुंवर सिंह की उम्र अस्सी के करीब थी। अगर वह जवान होते तो शायद अंग्रेजों को 1857 में ही भारत छोड़ना पड़ता।'

महा देव गोबिंद रानाडे 

महादेव गोबिंद राना डे  का जन्म १८ जनवरी १८४२ को नासिक महाराष्ट्र में हुआ था . वे एक प्रतिष्ठित भारतीय विद्वान, सामाजिक सुधारक और लेखक थे . उन्होंने कांग्रेस कि स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उन्होंने  पूना सार्वजनिक सभा और प्रार्थना समाज की स्थापना में मदद की. मृत्यु १६ जनवरी १९०१ को हुई.


रंगों बापू गुप्ते 

रंगों बापू जी गुप्ते का जन्म महाराष्ट्र में हुआ था. १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के महत्वपूर्ण योजनाकार थे. फ़्रांस कि क्रांति में जो महत्वा रूसो और वाल्टेयर का है , वही स्थान १८५७ की भारतीय क्रांति में अजीमुल्ला खान और रंगों बापू जी गुप्ते है. १८५३ में लन्दन से लौटने के बाद रंगों जी बापू जी गुप्ते ने महाराष्ट्र के कोल्हापुर, सतारा , बेलगाँव अदि के संपूर्ण क्षेत्रों में बड़े तीव्र और गोपनीय ढंग से क्रांति का प्रसार किया. १८५८ में उनके एक निकट मित्र ने विस्वासघात करके अंग्रेजो से गिरफ्तार करने का प्रयास किया पर इसके बाद इनका कुछ पता नहीं चला. 

चित्तू पाण्डेय 

१० मई १८६५ में उत्तर प्रदेश के बलिया में पैदा हुए. इनको शेरे बलिया के नाम से पुकारा जाता था.  इन्होने बलिया में भारत छोडो आन्दोलन का नेत्रत्वा किया. १९४२ में बलिया में सामानांतर सरकार बनाई तथा वहां के जिला कलेक्टर से सत्ता हाथ में लेकर सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा कर दिया.