Thursday, September 27, 2012


देश प्रेमियों,  देश की  आज़ादी के लिए अपने प्राण न्योछावर करने वाले शहीदों एवं क्रांतिकारियों की यादगार पुनः स्थापित करने के लिए बड़े प्रयत्न  से  एक शोध ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है, इस ग्रन्थ में लगभग एक हजार  क्रन्तिकारी और शहीदों का परिचय प्रस्तुत किया गया है, इस संकलन को अंतिम रूप देने के लिए विभिन्न स्रोतों से सहयोग लिया और इसके लिए अंदमान निकोबार स्थित सेलुलर जेल भी मैं गया, उक्त ग्रन्थ में से प्रतिदिन  कुछ क्रन्तिकारी और शहीदों      का संक्षिप्त परिचय आप तक पहुचाने हेतु   facebook (http://www.facebook.com/harvilas.gupta.7)   तथा मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित किया जायेगा , यदि आप को मेरा यह प्रयास अच्छा लगे तो उक्त क्रांतिकारियों का जीवन परिचय अपने मित्रों को फॉरवर्ड करें . आप सब की प्रतिक्रिया की अपेक्षा रहेगी ....

Harvilas Gupta

Email: harvilasgupta@gmail.com



आज की परिचय श्रंखला में प्रस्तुत हैं -
वीर नारायण सिंह 
वीरांगना उदा देवी
जीनत महल
बेगम हजरत महल
 रानी वेलु नाच्चियर 
राव तुला राम  
प्राण सुख यादव
राय अहमद खान खरल


वीर नारायण सिंह 

जन्म : १७९५ में छत्तीसगढ़ सोनाखान में जमीदार परिवार में पैदा हुए. १८५६ में अकाल पीड़ित लोगो कि सहायता की. अक्टूबर १८५६ में इनको एक झूठे मामले में फंसा कर जेल भेज  दिया गया. जनता ने जेल पर धावा बोलकर छुड़ाया तथा उनका  ब्रिटिश सेना से मुकाबला हुआ. हर जाने के उपरांत १० दिसंबर १८५७ को फंसी पर चढ़ा दिया गया. 


राव तुला राम 

राव तुलाराम भारत के एक प्रमुख स्वतन्त्रता सेनानी रेवाड़ी के नरेश थे। इनका जन्म ९ दिसंबर १८२५ को  यादव वंश में हुआ ।
 इन्होने १८५७ में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था, जिसमे उन्होंने तन मान धन लगाकर देश के लिए सर्वस्व समर्पित किया
. देश कि आज़ादी के लिए उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय सहयोग जुटाने कि कोशिश की. वे भारत की आज़ादी के प्रमुख नायकों में से एक मने जाते हैं
.  मृत्यु : २३ सितम्बर १८६३ में काबुल में हुई. 


जीनत महल
भारत के अंतिम मुग़ल बादशाह की  बेग़म थी. इनका जन्म १८२३ में हुआ. अग्रेजो द्वारा बहादुर शाह जफ़र 
कि गिरफ़्तारी के बाद उन्ही के साथ रंगून निर्वासित कर दिया गया. मृत्यु : १८८६.


बेग़म हजरत महल
लखनऊ में 1857 की क्रांति का नेतृत्व बेगम हजरत महल ने किया। अपने नाबालिग पुत्र बिरजिस कादर को गद्दी पर बिठाकर
 उन्होंने अंग्रेजी सेना का स्वयं मुकाबला किया। उनमें संगठन की अभूतपूर्व क्षमता थी और इसी कारण अवध के जमींदार,
किसान और सैनिक उनके नेतृत्व में आगे बढ़ते रहे। आलमबाग की लड़ाई के दौरान अपने जांबाज सिपाहियों की उन्होंने
भरपूर हौसला आफजाई की और हाथी पर सवार होकर अपने सैनिकों के साथ दिन-रात युद्ध करती रहीं। लखनऊ में पराजय के
 बाद वह अवध के देहातों मे चली गईं और वहां भी क्रांति की चिंगारी सुलगाई।


रानी वेलु नाच्चियर 
जन्म १७५०  में, दक्षिण भारतीय रानी थी. . ईस्ट इण्डिया कंपनी के खिलाफ जेहाद छेड़ा . इनके पति १७७२ में मरे गए. 
उस संहार में स्वयं बच गयी . 


प्राण सुख यादव 
जन्म : सन १८०२ हरियाणा में , अपने समय के अद्भुत सेनानायक थे. है सिंह नलवा के अनन्य मित्रों में से एक थे.
 राव तुलाराम के साथ मिलकर अंग्रेजों से युद्ध किया. १८८८ में इनकी मृत्यु हो गयी.


राय अहमद खान खरल 
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कि लड़ाई में इन्होने महत्वपूर्ण योगदान दिया. उसी दौरान इन्होने गोगरा सेंट्रल जेल पर हमला करके 
सैकड़ों स्वतंत्रता सेनानियों को छुड़ाया और कमिश्नर बर्कले को मरकर सैकड़ो हिन्दुस्तानियों के मरने का प्रतिशोध लिया. 
अंत में अंगेजी सेनाओ के साथ युद्ध करते हुए शहीद हो गए. 

गाँधी चाहते तो फांसी न चढ़ते भगत सिंह


भगतसिंह जयंती  पर विशेष 

आज हम आजाद हैं. भारत को अंग्रेजों से साल 1947 में आजादी मिली थी. लेकिन यह आजादी भी बहुत मुश्किल से मिली थी. इस आजादी का हमने बहुत बड़ा मोल भी चुकाया है. देश के हजारों युवाओं ने आजादी की बेला पर अपनी जान को हंसते-हंसते न्यौछावर कर दिया. देश के ऐसे ही युवा शहीद थे भगत सिंह.

शहीद-ए-आजम भगत सिंह

Shaheed Bhagat Singh
जन्मस्थल गाँव बंगा, जिला लायलपुरपंजाब (अब पाकिस्तान में)
शहादत  स्थल:लाहौर जेल, पंजाब (अब पाकिस्तान में)
आन्दोलन:भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम
प्रमुख संगठन:नौजवान भारत सभा, हिदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन

भगत सिंह का नाम आते ही हमारे दिल में एक ऐसे स्वतंत्रता सेनानी का चेहरा सामने आता है जिन्होंने देश को आजादी दिलाने के लिए क्रांति का रास्ता चुना और फांसी को हंसते-हंसते स्वीकार किया. भगत सिंह ने उस समय युवाओं के दिल में क्रांति की जो मसाल जलाई थी उसे अद्वितीय माना जाता है. भगत सिंह ने देश की आजादी के लिए क्रांति को ही सशक्त रास्ता बताया और खुद भी इसी पर चलते हुए शहीद हुए और शहीद-ए-आजम कहलाए.

भगतसिंह का जन्म:
कई लोग भगतसिंह का जन्म 27 सितंबर, 1907 बताते हैं तो कुछ 28 सितंबर, 1907. उनकी जन्मतिथि पर संशय जरूर है लेकिन उनकी देशभक्ति पर रत्ती भर भी शक नहीं किया जा सकता. अपने अंतिम समय में भी उन्होंने लोगों की दया की चाह नहीं की और फांसी को ही स्वीकार करना सही समझा.


संक्षिप्त परिचय 

भगत सिंह का जन्म २८ सितंबर, १९०७ में हुआ था। उनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था। यह एक सिख परिवार था जिसने आर्य समाज के विचार को अपना लिया था। अमृतसर में १३ अप्रैल, १९१९ को हुए जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड ने भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। लाहौर के नेशनल कॉलेज़ की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह ने भारत की आज़ादी के लिये नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी। काकोरी काण्ड में राम प्रसाद 'बिस्मिल' सहित ४ क्रान्तिकारियों को फाँसी व १६ अन्य को कारावास की सजाओं से भगत सिंह इतने अधिक उद्विग्न हुए कि पण्डित चन्द्रशेखर आजाद के साथ उनकी पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन से जुड गये और उसे एक नया नाम दिया हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन । इस संगठन का उद्देश्य सेवा,त्याग और पीड़ा झेल सकने वाले नवयुवक तैयार करना था। भगत सिंह ने राजगुरु के साथ मिलकर १७ दिसम्बर १९२८ को लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज़ अधिकारी जे० पी० सांडर्स को मारा था। इस कार्रवाई में क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद ने उनकी पूरी सहायता की थी। क्रान्तिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने अलीपुर रोड दिल्ली स्थित ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेण्ट्रल एसेम्बली के सभागार में ८ अप्रैल १९२९ को अंग्रेज़ सरकार को जगाने के लिये बम और पर्चे फेंके थे। बम फेंकने के बाद वहीं पर दोनों ने अपनी गिरफ्तारी भी दी।

क्रान्तिकारी गतिविधियाँ

उस समय भगत सिंह करीब १२ वर्ष के थे जब जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड हुआ था। इसकी सूचना मिलते ही भगत सिंह अपने स्कूल से १२ मील पैदल चलकर जलियाँवाला बाग पहुँच गये। इस उम्र में भगत सिंह अपने चाचाओं की क्रान्तिकारी किताबें पढ़ कर सोचते थे कि इनका रास्ता सही है कि नहीं ? गांधी जी का असहयोग आन्दोलन छिड़ने के बाद वे गान्धी जी के अहिंसात्मक तरीकों और क्रान्तिकारियों के हिंसक आन्दोलन में से अपने लिये रास्ता चुनने लगे। गान्धी जी के असहयोग आन्दोलन को रद्द कर देने के कारण देश के तमाम नवयुवकों की भाँति उनमें भी रोष हुआ और अन्ततः उन्होंने देश की स्वतन्त्रता के लिये क्रान्ति का मार्ग अपनाना अनुचित नहीं समझा। उन्होंने जुलूसों में भाग लेना प्रारम्भ किया तथा कई क्रान्तिकारी दलों के सदस्य बने। बाद में वे अपने दल के प्रमुख क्रान्तिकारियों के प्रतिनिधि भी बने। उनके दल के प्रमुख क्रान्तिकारियों में चन्द्रशेखर आजाद, भगवतीचरण व्होरा, सुखदेवराजगुरु इत्यादि थे।

लाला जी की मृत्यु का प्रतिशोध


१९२८ में साइमन कमीशन के बहिष्कार के लिये भयानक प्रदर्शन हुए। इन प्रदर्शनों मे भाग लेने वालों पर अंग्रेजी शासन ने लाठी चार्ज भी किया। इसी लाठी चार्ज से आहत होकर लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गयी। अब इनसे रहा न गया। एक गुप्त योजना के तहत इन्होंने पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट स्काट को मारने की योजना सोची। सोची गयी योजना के अनुसार भगत सिंह और राजगुरु लाहौर कोतवाली के सामने व्यस्त मुद्रा में टहलने लगे। उधर बटुकेश्वर दत्त अपनी साइकिल को लेकर ऐसे बैठ गये जैसे कि वो ख़राब हो गयी हो । दत्त के इशारे पर दोनों सचेत हो गये। उधर चन्द्रशेखर आज़ाद पास के डी० ए० वी० स्कूल की चहारदीवारी के पास छिपकर घटना को अंजाम देने में रक्षक का काम कर रहे थे।
१७ दिस्मबर १९२८ को करीब सवा चार बजे, स्काट की जगह, ए० एस० पी० सॉण्डर्स के आते ही राजगुरु ने एक गोली सीधी उसके सर में मारी जिसके तुरन्त बाद वह होश खो बैठा। इसके बाद भगत सिंह ने ३-४ गोली दाग कर उसके मरने का पूरा इन्तज़ाम कर दिया। ये दोनों जैसे ही भाग रहे थे कि एक सिपाही चनन सिंह ने इनका पीछा करना शुरू कर दिया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने उसे सावधान किया - "आगे बढ़े तो गोली मार दूँगा।" नहीं मानने पर आज़ाद ने उसे गोली मार दी। इस तरह इन लोगों ने लाला लाजपत राय की मौत का बदला ले लिया ।

एसेम्बली में बम फेंकना


भगत सिंह यद्यपि रक्तपात के पक्षधर नहीं थे परन्तु वे कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों से पूरी तरह प्रभावित थे। यही नहीं, वे समाजवाद के पक्के पोषक भी थे। इसी कारण से उन्हें पूँजीपतियों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसन्द नहीं आती थी। उस समय चूँकि अँग्रेज ही सर्वेसर्वा थे तथा बहुत कम भारतीय उद्योगपति उन्नति कर पाये थे, अतः अँग्रेजों के मजदूरों के प्रति अत्याचार से उनका विरोध स्वाभाविक था। मजदूर विरोधी ऐसी नीतियों को ब्रिटिश संसद में पारित न होने देना उनके दल का निर्णय था। सभी चाहते थे कि अँग्रेजों को पता चलना चाहिये कि हिन्दुस्तानी जाग चुके हैं और उनके हृदय में ऐसी नीतियों के प्रति आक्रोश है। ऐसा करने के लिये ही उन्होंने दिल्ली की केन्द्रीय एसेम्बली में बम फेंकने की योजना बनायी थी।
भगत सिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून खराबा न हो और अँग्रेजों तक उनकी 'आवाज़' भी पहुँचे। हालाँकि प्रारम्भ में उनके दल के सब लोग ऐसा नहीं सोचते थे पर अन्त में सर्वसम्मति से भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त का नाम चुना गया। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ८ अप्रैल, १९२९ को केन्द्रीय असेम्बली में इन दोनों ने एक ऐसे स्थान पर बम फेंका जहाँ कोई मौजूद न था, अन्यथा उसे चोट लग सकती थी। पूरा हाल धुएँ से भर गया। भगत सिंह चाहते तो भाग भी सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें दण्ड स्वीकार है चाहें वह फाँसी ही क्यों न हो; अतः उन्होंने भागने से मना कर दिया। उस समय वे दोनों खाकी कमीज़ तथा निकर पहने हुए थे। बम फटने के बाद उन्होंने "इंकलाब! - जिन्दाबाद!! साम्राज्यवाद! - मुर्दाबाद!!" का नारा लगाया और अपने साथ लाये हुए पर्चे हवा में उछाल दिये। इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गयी और दोनों को ग़िरफ़्तार कर लिया गया।

जेल के दिन

जेल में भगत सिंह ने करीब २ साल रहे। इस दौरान वे लेख लिखकर अपने क्रान्तिकारी विचार व्यक्त करते रहे। जेल में रहते हुए उनका अध्ययन बराबर जारी रहा। उनके उस दौरान लिखे गये लेख व सगे सम्बन्धियों को लिखे गये पत्र आज भी उनके विचारों के दर्पण हैं। अपने लेखों में उन्होंने कई तरह से पूँजीपतियों को अपना शत्रु बताया है। उन्होंने लिखा कि मजदूरों का शोषण करने वाला चाहें एक भारतीय ही क्यों न हो, वह उनका शत्रु है। उन्होंने जेल में अंग्रेज़ी में एक लेख भी लिखा जिसका शीर्षक था मैं नास्तिक क्यों हूँ?" जेल में भगत सिंह व उनके साथियों ने ६४ दिनों तक भूख हडताल की। उनके एक साथी यतीन्द्रनाथ दास ने तो भूख हड़ताल में अपने प्राण ही त्याग दिये थे।

महान व्यक्तित्व के स्वामी थे भगत सिंह 



जेल के दिनों में उनके लिखे खतों व लेखों से उनके विचारों का अन्दाजा लगता है । उन्होंने भारतीय समाज में लिपि (पंजाबी की गुरुमुखी व शाहमुखी तथा हिन्दी और अरबी एवम् उर्दू के सन्दर्भ में विशेष रूप से), जाति और धर्म के कारण आयी दूरियों पर दुःख व्यक्त किया था। उन्होंने समाज के कमजोर वर्ग पर किसी भारतीय के प्रहार को भी उसी सख्ती से सोचा जितना कि किसी अंग्रेज के द्वारा किये गये अत्याचार को ।
भगत सिंह को हिन्दी, उर्दू, पंजाबी तथा अंग्रेजी के अलावा बांग्ला भी आती थी जो उन्होंने बटुकेश्वर दत्त से सीखी थी । उनका विश्वास था कि उनकी शहादत से भारतीय जनता और उद्विग्न हो जायेगी और ऐसा उनके जिन्दा रहने से शायद ही हो पाये । इसी कारण उन्होंने मौत की सजा सुनाने के बाद भी माफ़ीनामा लिखने से साफ मना कर दिया था। पं० राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने अपनी आत्मकथा में जो-जो दिशा-निर्देश दिये थे, भगत सिंह ने उनका अक्षरश: पालन किया[4]। उन्होंने अंग्रेज सरकार को एक पत्र भी लिखा, जिसमें कहा गया था कि उन्हें अंग्रेज़ी सरकार के ख़िलाफ़ भारतीयों के युद्ध का प्रतीक एक युद्धबन्दी समझा जाये तथा फाँसी देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाये।[5] फाँसी के पहले ३ मार्च को अपने भाई कुलतार को भेजे एक पत्र में भगत सिंह ने लिखा था -
उन्हें यह फ़िक्र है हरदम, नयी तर्ज़-ए-ज़फ़ा क्या है?
हमें यह शौक है देखें, सितम की इन्तहा क्या है?
दहर से क्यों ख़फ़ा रहें, चर्ख का क्या ग़िला करें।
सारा जहाँ अदू सही, आओ! मुक़ाबला करें।।
इन जोशीली पंक्तियों से उनके शौर्य का अनुमान लगाया जा सकता है। चन्द्रशेखर आजाद से पहली मुलाकात के समय जलती हुई मोमबती पर हाथ रखकर उन्होंने कसम खायी थी कि उनकी जिन्दगी देश पर ही कुर्बान होगी और उन्होंने अपनी वह कसम पूरी कर दिखायी।

गाँधी चाहते तो फांसी  न चढ़ते भगत सिंह 





 अगर गांधी जी चाहते तो भगतसिंह को बचाया जा सकता था. अगर गांधीजी ने भगतसिंह का साथ दिया होता और उनकी रिहाई के लिए आवाज उठाई होती तो मुमकिन है देश अपना एक होनहार युवा क्रांतिकारी नहीं खोता.

भगत सिंह की मृत्यु के समय महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘मैंने किसी की जिंदगी को लेकर इतना रोमांच नहीं देखा जितना कि भगत सिंह के बारे में. हालांकि मैंने लाहौर में उसे एक छात्र के रूप में कई बार देखा है, मुझे भगत सिंह की विशेषताएं याद नहीं हैं, लेकिन पिछले एक महीने में भगत सिंह की देशभक्ति, उसके साहस और भारतीय मानवता के लिए उसके प्रेम की कहानी सुनना मेरे लिए गौरव की बात है.’ लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी कहा था कि ‘मैं देश के युवाओं को आगाह करता हूं कि वे उनके उदाहरण के रूप में हिंसा का अनुकरण नहीं करें.

उनके इस बयान के बाद यह सवाल देश के लगभग हर राज्य में गूंजा कि आखिर क्यूं गांधीजी ने देश के इस महान क्रांतिकारी को बचाने की दिशा में कार्य नहीं किया और क्यूं गांधीजी ने भगतसिंह की विचारधारा का विरोध किया?


इस सवाल के जवाब में कई लोग मानते हैं कि अगर महात्मा गांधी जी ने भगतसिंह का समर्थन किया होता तो उनकी खुद की विचारधारा पर सवाल खड़े होते और जिस अहिंसा के रास्ते पर वह बहुत ज्यादा आगे बढ़ चुके थे उस पर वह पीछे नहीं मुड़ सकते थे. इस चीज से साफ है कि गांधीजी और भगतसिंह की विचारधारा ही वह मुख्य वजह रही जिसकी वजह से दोनों के बीच टकराव हुए और गांधीजी ने भगतसिंह से दूरी बनाना ही सही समझा. भगत सिंह हिंसा और क्रांति को ही अपना रास्ता बनाना चाहते थे जबकि महात्मा गांधी अहिंसा के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं अपनाना चाहते थे.


अंतत: भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को 23 मार्च, 1931 को ही फांसी दे दी गई. यह फांसी यूं तो 24 मार्च, 1931 की सुबह फांसी दी जानी थी लेकिन ब्रितानिया हुकूमत ने नियमों का उल्लंघन कर एक रात पहले ही तीनों को चुपचाप लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी पर चढ़ा दिया था.
अंग्रेजों ने भगतसिंह को तो खत्म कर दिया पर वह भगत सिंह के विचारों को खत्म नहीं कर पाए जिसने देश की आजादी की नींव रख दी. आज भी देश में भगतसिंह क्रांति की पहचान हैं.

क्या शहीद भगत सिंह जी को न बचा पाने में गाँधी जी ज़िम्मेदार थे? अपनी टिप्पणियां जरूर भेजें .....


Friday, September 21, 2012


देश प्रेमियों,  देश की  आज़ादी के लिए अपने प्राण न्योछावर करने वाले शहीदों एवं क्रांतिकारियों की यादगार पुनः स्थापित करने के लिए बड़े प्रयत्न  से  एक शोध ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है, इस ग्रन्थ में लगभग एक हजार  क्रन्तिकारी और शहीदों का परिचय प्रस्तुत किया गया है, इस संकलन को अंतिम रूप देने के लिए विभिन्न स्रोतों से सहयोग लिया और इसके लिए अंदमान निकोबार स्थित सेलुलर जेल भी मैं गया, उक्त ग्रन्थ में से प्रतिदिन  कुछ क्रन्तिकारी और शहीदों      का संक्षिप्त परिचय आप तक पहुचाने हेतु   facebook (http://www.facebook.com/harvilas.gupta.7)   तथा मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित किया जायेगा , यदि आप को मेरा यह प्रयास अच्छा लगे तो उक्त क्रांतिकारियों का जीवन परिचय अपने मित्रों को फॉरवर्ड करें . आप सब की प्रतिक्रिया की अपेक्षा रहेगी ....

Harvilas Gupta

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आज की परिचय श्रंखला में प्रस्तुत हैं --
1) गुरु राम सिंह
२) वीर कुअर सिंह
३) रंगों जी बापू गुप्ते
४)महादेव गोबिंद रानाडे
५) महाराजा नन्द कुमार 
६) चित्तू पाण्डेय 



बाबा रामसिंह कूका


बाबा रामसिंह कूका का जन्म 1816 ई. में वसंत पंचमी पर लुधियाना के भैणी ग्राम में हुआ था। कुछ समय वे रणजीत सिंह की सेना में रहे, फिर घर आकर खेतीबाड़ी में लग गये, पर आध्यात्मिक प्रवृत्ति होने के कारण इनके प्रवचन सुनने लोग आने लगे। धीरे-धीरे इनके शिष्यों का एक अलग पंथ ही बन गया, जो कूका पंथ (नामधारी) कहलाया।
बाबा रामसिंह कूका भारत की आजादी के सर्वप्रथम प्रणेता (कूका विद्रोह), असहयोग आंदोलन के मुखिया, सिखों के नामधारी पंथ के संस्थापक, तथा महान समाज-सुधारक थे। संत गुरु राम सिंह ने 12 अप्रैल 1857 को श्री भैणी साहिब जिलालुधियाना (पंजाब) से जब अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध आवाज उठाई थी, तब उस समय भारतवासी गुलामी के साथ-साथ सामाजिक कुरीतियों के शिकार थे.  उन्होंने भी सर्वप्रथम अंग्रेजी शासन का बहिष्कार कर अपनी स्वतंत्र डाक और प्रशासन व्यवस्था चलायी थी। प्रतिवर्ष मकर संक्रांति पर भैणी गांव में मेला लगता था। १८७२ में मेले में आते समय उनके एक शिष्य को मुसलमानों ने घेर लिया। उन्होंने उसे पीटा और गोवध कर उसके मुंह में गोमांस ठूंस दिया। यह सुनकर गुरू रामसिंह के शिष्य भड़क गये। उन्होंने उस गांव पर हमला बोल दिया, पर दूसरी ओर से अंग्रेज सेना आ गयी। अत: युध्द का पासा पलट गया।
इस संघर्ष में अनेक कूका वीर शहीद हुए और 68 पकड़ लिये गये। इनमें से 50 को सत्रह जनवरी 1872 को मलेरकोटला में तोप के सामने खड़ाकर उड़ा दिया गया। शेष 18 को अगले दिन फांसी दी गयी। दो दिन बाद गुरू रामसिंह को भी पकड़करबर्मा की मांडले जेल में भेज दिया गया। 14 साल तक वहां कठोर अत्याचार सहकर 1885 ई. में उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया।


वीर कुअर सिंह
कुंवर सिंह का जन्म १७७७ में बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर गांव में हुआ था। इनके पिता बाबू साहबजादा सिंह प्रसिद्ध शासक भोज के वंशजों में से थे। उनके छोटे भाई अमर सिंह, दयालु सिंह और राजपति सिंह एवं इसी खानदान के बाबू उदवंत सिंह, उमराव सिंह तथा गजराज सिंह नामी जागीरदार रहे तथा अपनी आजादी कायम रखने के खातिर सदा लड़ते रहे. १८५७ में अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए हिंदू और मुसलमानों ने मिलकर कदम बढ़ाया। मंगल पाण्डे की बहादुरी ने सारे देश में विप्लव मचा दिया। बिहार की दानापुर रेजिमेंट, बंगाल के बैरकपुरऔर रामगढ़ के सिपाहियों ने बगावत कर दी। मेरठ, कानपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, झांसी और दिल्ली में भी आग भड़क उठी। ऐसे हालात में बाबू कुंवर सिंह ने भारतीय सैनिकों का नेतृत्व किया।
27 अप्रैल 1857 को दानापुर के सिपाहियों, भोजपुरी जवानों और अन्य साथियों के साथ आरा नगर पर बाबू वीर कुंवर सिंह ने कब्जा जमा लिया। अंग्रेजों की लाख कोशिशों के बाद भी भोजपुर लंबे समय तक स्वतंत्र रहा। जब अंग्रेजी फौज ने आरा पर हमला करने की कोशिश की तो बीबीगंज और बिहिया के जंगलों में घमासान लड़ाई हुई। बहादुर स्वतंत्रता सेनानी जगदीशपुर की ओर बढ़ गए। आरा पर फिर से कब्जा जमाने के बाद अंग्रेजों ने जगदीशपुर पर आक्रमण कर दिया। बाबू कुंवर सिंह और अमर सिंह को जन्म भूमि छोड़नी पड़ी। अमर सिंह अंग्रेजों से छापामार लड़ाई लड़ते रहे और बाबू कुंवर सिंह रामगढ़ के बहादुर सिपाहियों के साथ बांदा, रीवां, आजमगढ़, बनारस, बलिया, गाजीपुर एवं गोरखपुर में विप्लव के नगाड़े बजाते रहे। ब्रिटिश इतिहासकार होम्स ने उनके बारे में लिखा है, 'उस बूढ़े राजपूत ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध अद्भुत वीरता और आन-बान के साथ लड़ाई लड़ी। यह गनीमत थी कि युद्ध के समय कुंवर सिंह की उम्र अस्सी के करीब थी। अगर वह जवान होते तो शायद अंग्रेजों को 1857 में ही भारत छोड़ना पड़ता।'

महा देव गोबिंद रानाडे 

महादेव गोबिंद राना डे  का जन्म १८ जनवरी १८४२ को नासिक महाराष्ट्र में हुआ था . वे एक प्रतिष्ठित भारतीय विद्वान, सामाजिक सुधारक और लेखक थे . उन्होंने कांग्रेस कि स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उन्होंने  पूना सार्वजनिक सभा और प्रार्थना समाज की स्थापना में मदद की. मृत्यु १६ जनवरी १९०१ को हुई.


रंगों बापू गुप्ते 

रंगों बापू जी गुप्ते का जन्म महाराष्ट्र में हुआ था. १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के महत्वपूर्ण योजनाकार थे. फ़्रांस कि क्रांति में जो महत्वा रूसो और वाल्टेयर का है , वही स्थान १८५७ की भारतीय क्रांति में अजीमुल्ला खान और रंगों बापू जी गुप्ते है. १८५३ में लन्दन से लौटने के बाद रंगों जी बापू जी गुप्ते ने महाराष्ट्र के कोल्हापुर, सतारा , बेलगाँव अदि के संपूर्ण क्षेत्रों में बड़े तीव्र और गोपनीय ढंग से क्रांति का प्रसार किया. १८५८ में उनके एक निकट मित्र ने विस्वासघात करके अंग्रेजो से गिरफ्तार करने का प्रयास किया पर इसके बाद इनका कुछ पता नहीं चला. 

चित्तू पाण्डेय 

१० मई १८६५ में उत्तर प्रदेश के बलिया में पैदा हुए. इनको शेरे बलिया के नाम से पुकारा जाता था.  इन्होने बलिया में भारत छोडो आन्दोलन का नेत्रत्वा किया. १९४२ में बलिया में सामानांतर सरकार बनाई तथा वहां के जिला कलेक्टर से सत्ता हाथ में लेकर सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा कर दिया. 

Thursday, September 20, 2012


देश प्रेमियों,  देश की  आज़ादी के लिए अपने प्राण न्योछावर करने वाले शहीदों एवं क्रांतिकारियों की यादगार पुनः स्थापित करने के लिए बड़े प्रयत्न  से  एक शोध ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है, इस ग्रन्थ में लगभग एक हजार  क्रन्तिकारी और शहीदों का परिचय प्रस्तुत किया गया है, इस संकलन को अंतिम रूप देने के लिए विभिन्न स्रोतों से सहयोग लिया और इसके लिए अंदमान निकोबार स्थित सेलुलर जेल भी मैं गया, उक्त ग्रन्थ में से प्रतिदिन  कुछ क्रन्तिकारी और शहीदों      का संक्षिप्त परिचय आप तक पहुचाने हेतु   facebook (http://www.facebook.com/harvilas.gupta.7)   तथा मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित किया जायेगा , यदि आप को मेरा यह प्रयास अच्छा लगे तो उक्त क्रांतिकारियों का जीवन परिचय अपने मित्रों को फॉरवर्ड करें . आप सब की प्रतिक्रिया की अपेक्षा रहेगी ....

Harvilas Gupta

Email: harvilasgupta@gmail.com



आज की परिचय श्रंखला में प्रस्तुत हैं --
१) रानी लक्ष्मी बाई  २) तात्याँ टोपे  ३) बहादुर शाह जफ़र  ४) नाना साहेब ५)वेलु थम्पी ६) मंगल पाण्डेय 
रानी   लक्ष्मी बाई  
पिता : श्री मोरो पन्त 
जन्म : १९ नवम्बर १८३५, बनारस में. 
विवाह हुआ झाँसी के राजा गंगाधर राव से. 
१८५७ के स्वतंत्रता संग्राम में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी से युद्ध छेड़ने वाली अद्वितीय मिशाल पेश की.
ब्रिटिश सेना से युद्ध करते हुए ग्वालियर के निकट १८ जून १८५८ को मात्र २३ वर्ष की अवस्था में शहीद हो गयीं . तत्कालीन जनरल ह्यूरोज ने कहा था कि मुझे भारतीय लड़को में कोई मर्द दिखा तो वो थी रानी लक्ष्मी बाई. आज भी वो हमारी प्रेरणा श्रोत हैं.  

बहादुर शाह जफ़र ( अंतिम मुग़ल सम्राट)
१२ मई १८५७ को बहादुर शाह ने अग्रेंजों के विरुद्ध फरमान जारी किया, किन्तु शीघ्र ही अग्रेंजों ने उनको हुमायूँ के मकबरे से गिरफ्तार कर लिया . विलिअम हडसन ने दिल्ली गेट पर आज जहाँ खुनी दरवाजा स्थित है वहां   पुत्रों और एक पुत्र को गोली से उड़ा दिया , बहादुर शाह को रंगून निर्वासित कर दिया, जहाँ ७ नवम्बर १९६२ को उनका देहांत हो गया. 

तात्याँ टोपे 

तात्या टोपे का जन्म सन 1814 में पूना में हुआ था। तात्या टोपे का वास्तविक नाम- 'रामचंद्र पांडुरंग येवलेकर' था। उनके पिता पांडुरंग अण्णा साहब कहलाते थे और पेशवा बाजीराव द्वितीय के गृह-विभाग का काम देखते थे.  बालकाल बिठूर में पेशवा के दत्तक पुत्र नाना साहब और झाँसी की वीरांगन रानी लक्ष्मीबाई के साथ व्यतीत हुआ था। आगे चलकर 1857 में देश की स्वाधीनता के लिए तीनों ने जो आत्मोत्सर्ग किया था वह हमारे स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है।
सन 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के विस्फोट होने पर तात्या भी समरांगण में कूद गया था। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई और नाना साहब के प्रति अंग्रेज़ों ने जो अन्याय किये थे, उनकी उसके हृदय में एक टीस थी। उसने उत्तरी भारत में शिवराजपुर, कानपुरकालपी और ग्वालियर आदि अनेक स्थानों में अंग्रेज़ों की सेनाओं से कई बार लोहा लिया था। सन् 1857 के स्वातंत्र्य योद्धाओं में वही ऐसा तेजस्वी वीर था जिसने विद्युत गति के समान अपनी गतिविधियों से शत्रु को आश्चर्य में ड़ाल दिया था। वही एकमात्र एसा चमत्कारी स्वतन्त्रता सेनानी था जिसमे पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण के सैनिक अभियानों में फिरंगी अंग्रेज़ों के दाँत खट्टे कर दिये थे । आखिर में इनके एक गद्दार मित्र मानसिंह ने तात्या के साथ धोखा करके उसे अंग्रेज़ों को सुपुर्द कर दिया था।१८ अप्रैल १८५९ को  अंग्रेज़ों ने उसे फांसी पर लटका दिया था. 

वेलु थम्पी 
जन्म : ६ मई १७६५ को तमिलनाडु के गाँव कल्कुलम में श्री कुंजन मयेति पिल्लई के घर पैदा हुए. ऐसा मन जाता है कि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया के विरोध में खड़ा होने वाला यह प्रथम युवक था. अग्रेंजो के विरुद्ध रण छेड़ा और घिर जाने पर स्वयं अपनी तलवार से अपनी गर्दन काट कर शहीद हो गए .

नाना साहब 

वास्तविक नाम : धूंधूपंत,  जन्म :  1824 में वेणुग्राम निवासी माधवनारायण राव के घर। इनके पिता पेशवा बाजीराव द्वितीय के सगोत्र भाई थे। पेशवा ने बालक नानाराव को अपना दत्तक पुत्र स्वीकार किया.  । सन् 1857 में वह काल्पी, दिल्ली तथा लखनऊ गए। काल्पी में आपने बिहार के प्रसिद्ध कुँवरसिंह से भेंट की और भावी क्रांति की कल्पना की। जब मेरठ में क्रांति का श्रीगणेश हुआ तो नाना साहब ने बड़ी वीरता और दक्षता से क्रांति की सेनाओं का कभी गुप्त रूप से और कभी प्रकट रूप से नेतृत्व किया। अग्रेजों को खुली चुनौती दी और हार सामने देख बड़ी पटुता से वह से निकल गए और आन्दोलन को गुप्त रूप से चलाते रहे. अंग्रेज सरकार ने नाना साहब को पकड़वाने के निमित्त बड़े बड़े इनाम घोषित किए किंतु वे निष्फल रहे। उनका  आखिरी समय अज्ञात है. 


मंगल पाण्डेय 

मंगल पाण्डेय-1857 के गदर का प्रथम बलिदानी

8 अप्रैल,1857 के दिन बैरकपुर की रेजीमेण्ट के एक सिपाही को फौजी अनुशासन भंग करने तथा हत्या करने के अपराध में फांसी पर चढ़ाया गया। फांसी चढ़ाने के लिए कोई स्थानीय जल्लाद न मिला। कलकत्ता से चार जल्लादों को बुलाकर इस फौजी को फांसी दी गई।यह फौजी था भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का प्रथम योद्धा-मंगल पाण्ड़ेय।
अजीमुल्ला खान  द्वारा अपने मस्तिष्क का इस्तेमाल करके तैयार की गई 31मई,1857 के गदर की योजना को क्रियान्वित नाना साहेब पेशवा ने किया, परन्तु मातृभूमि की आजादी के लिए प्राण न्यौछावर करने वाले प्रथम योद्धा हैं-मंगल पाण्ड़ेय। भारतीय क्रान्ति के अग्रदूत-मंगल पाण्डेय एक देशभक्त तथा धर्मपरायण व्यक्ति थे। बैरकपुर की 19नम्बर रेजीमेण्ट के भावुक तथा जोशीले सिपाही मंगल पाण्डेय का क्रोध मानों सातवें आसमान पर जा पहुंचा , जब यह खबर फैली कि अंग्रेजों द्वारा गाय तथा सूअर की चर्बी व खून का प्रयोग करके बनायी गई कारतूसों को रेजीमेण्ट में भेजा गया है। रेजीमेण्ट में असंतोष फैल गया।अंग्रेजों ने समझाया कि यैसा कुछ भी नहीं किया गया है परन्तु गो मांस भक्षी अंग्रेजों की बातों का रेजीमेण्ट में किसी को विश्वास नहीं हुआ। 31मई,1857 के गदर की तैयारी के लिए बैरकपुर में रेजीमेण्ट का मुखिया वजीर अली खान  को बनाया गया था। कारतूसों को इस्तेमाल करने से इंकार कर देने के कारण रेजीमेण्ट को निशस्त्र करने की योजना अंग्रेजों द्वारा बनायी गई। इसकी भनक लगते ही भावुक ह्दय के जोशीले-धार्मिक-देशभक्त मंगल पाण्डेय संभवतः अपने मनोभावों एवं शक्ति पर नियंत्रण न रख सके अपितु रखना भी नहीं चाहा होगा। वो तो बलिदान की सजी हुई वेदी में प्रथम आहुति देने को उद्वेलित मानस था। सोचा होगा,‘‘ विद्रोह करना ही है तो कई मास बाद क्यो।? अभी क्यों नहीं?कहीं बर्मा से गोरी पलटन न आ जाये?‘‘ यह विचार मनो-मस्तिश्क में कौंधने लगे मंगल पाण्डेय के। क्रान्ति की धधकती ज्वाला में आर्थिक,सामाजिक,राजनैतिक कारणों के साथ-साथ धार्मिक कारण के जुड़ जाने से ज्वाला ने मंगल पाण्डेय के तन-बदन में आग लगा दी। समस्त कारणों ने एक सूत्र में एकत्र होकर गुलामी की बेडियां काटने के लिए मंगल पाण्डेय के भावुक-जोशीले मन को उद्वेलित कर दिया। फिरंगियों के प्रति घृणा,विद्वेष,असंतोष की अग्नि ने 29मार्च,1857 को पहली गोली चलाने पर विवश कर दिया,छेड़ दिया स्वतन्त्रता-संग्राम मंगल पाण्डेय ने। गुलामी की जंजीरों को काटने को बेचैन मन ने किस तरह विद्रोह की आधारशिला रखी,यह इतिहास में दर्ज हो चुका है।
29मार्च,1857 के दिन बैरकपुर की छावनी में अपने कमरे में बैठे मंगल पाण्डेय ने अचानक अपनी बन्दूक को उठाकर, माथे पर लगाकर चूमा। भारत माता की बारम्बार स्तुति करते हुए मंगल पाण्डेय ने बन्दूक में गोली भरी। शेर की तरह वीर मंगल पाण्डेय परेड ग्राउण्ड की तरफ चल पडे़। दमकता ललाट,गर्व से चैडी छाती,बलिदान की महान भावना से ओत-प्रोत आत्मा और नश्वर शरीर मानों साक्षात् काल अपने शिकार की तरफ लपका हो। साथियों ने रोका, मंगल पाण्डेय ने ललकारा, ‘‘व्यर्थ प्रतीक्षा मत करो। चलो,आज ही फैसला करो। आज ही फिरंगियो। का सफाया करो। भाइयों,उठो,आप पीछे क्यों हट रहे हो?‘‘ उन्होंने धर्म की सौगन्ध देते हुए ललकारा, ‘‘स्वतन्त्रता की देवी तुम्हें पुकार रही है और कह रही है कि तुम्हें धोखेबाज तथा मक्कार शत्रुओं पर फौरन आक्रमण बोल देना चाहिए। अब और रूकने की आवश्यकता नहीं है।‘‘ अन्य सिपाहियों के भाव क्रान्तिकारी नेताओं के निर्देशों की डोर में बधें रहे। मंगल पाण्डेय ने सिंहनाद कर दिया। सिंह की चपेट में ब्रितानिया हुकूमत का सार्जेन्ट मेजर ह्यूसन आ गया। सार्जेन्ट ने मंगल पाण्डेय की गिरफतारी का आदेष दिया, कोई सिपाही आगे नहीं बढ़ा। सिंह की आंखे शोले उगल रही थीं, आत्मा रक्तदान के लिए तड़प रही थी। ठाय की आवाज हुई और सार्जेण्ट ह्यूसन जमीन चाटने लगा। दूसरा अंग्रेज अफसर लेफटीनेण्ट बाॅब घोडे पर सवार होकर मंगल पाण्डेय की तरफ झपटा। मंगल पाण्डेय ने दूसरी गोली चला दी, गोली घोडे को लगी,घोडा व बाब दोनो गिर पडे। बाब ने पिस्टल से मंगल पाण्डेय पर फायर किया। निशाना चूका। मंगल पाण्डेय ने तलवार से अंग्रेज बाब को मौत के घाट उतार दिया। इसी समय एक अंग्रेज ने पीछे से मंगल पाण्डेय पर हमला किया। एक भारतीय सिपाही ने जोर से बन्दूक का कुन्दा उस अंग्रेज के सर पर मारा,अंग्रेज का सिर फट गया और वह धरती पर गिर पड़ा। मंगल पाण्डेय की आखें क्रान्ति की ज्वालायें बरसा रहीं थी। विद्रोह की खबर कर्नल व्हीलर को मिली। परेड-ग्राउण्ड में पहुच कर उसने भारतीय सैनिकों को आज्ञा दी,‘‘पाण्डेय को गिरफतार करो।‘‘ सिपाहियों के मध्य से सिंहनाद हुआ, ‘‘खबरदार,मंगल पाण्डेय को कोई हाथ न लगाये। हम ब्राह्मण देवता का बाल भी बांका न होने दे।गें।‘‘ कर्नल व्हीलर ने अंग्रेजों की लाशें देखीं, मंगल पाण्डेय का रक्त से सना शरीर देखा तथा विद्रोह के मुहाने पर खड़ी फौज को देखा और कुछ सोचता हुआ लौट गया। उसने जनरल हियरे को खबर की। अंग्रेज सेना के साथ हियरे परेड ग्राउण्ड आ धमका। मंगल पाण्डेय ने अंग्रेज सेना को आते देखकर गर्जना की,‘‘भाइयों,बगावत करो,बगावत करो। अब देर करना उचित नहीं। देश को तुम्हारा बलिदान चाहिए।‘‘ परन्तु भारतीय सिपाही 31मई की तय तारीख और क्रान्तिकारी आन्दोलन के अनुशासन के कारण शान्त रहे। मंगल पाण्डेय ने तत्काल अपनी छाती पर नाल रखकर गोली चला दी। वह नहीं चाहते थे कि अंग्रेज जीवित पकड़ कर उनकी दुर्गति कर दें। दुर्भाग्य वश वो मरे नहीं, अंगे्रजों ने फौजी अस्पताल में इलाज कराया।ठीक होने पर उन पर फौजी अनुशासन भंग करने का तथा हत्या का मुकदमा चला। मंगल पाण्डेय ने कहा,‘‘जिन अंग्रेजों पर मैने गोली चलाई, उनसे मेरा कोई बैर नहीं था , झगड़ा व्यक्तियों का नहीं,दो देशों का है। हम नहीं चाहते कि दूसरों के गुलाम बन कर रहें। फिरंगियों को हम अपने देश से निकाल देना चाहते हैं।‘‘अदालत ने मंगल पाण्डेय को सजा-ए-मौत की सजा सुनाई। 8अप्रैल,1857 को मंगल पाण्डेय को फांसी दे दी गई।